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कलाम
आशिक़ पढ़न नमाज़ पिरम दी जैं विच हरफ़ न कोई हूजेहा केहा नीत न सक्के उथ दर्दमंद दिल ढोई हू
सुल्तान बाहू
कलाम
नज़र-ए-'उश्शाक़ नबी है ये मिरा हर्फ-ए-ग़रीबमिम्बर-ए-वा'ज़ पे लड़ते रहें आपस में ख़तीब
पीर नसीरुद्दीन नसीर
कलाम
सुन लिए दो हर्फ़ जिस ने हो गया सरमस्त-ए-इ'श्क़चश्म-ए-अफ़्सूँ-साज़ का अफ़्सूँ मिरा अफ़्साना था
अमीर मीनाई
कलाम
न हर्फ़-ए-हक़ न वो मंसूर की ज़बाँ न वो दारन कर्बला न वो कटते सरों के नज़्राने
पीर नसीरुद्दीन नसीर
कलाम
हर्फ़-ओ-बयाँ की दुख नगरी आया हूँ तो चाहता हूँपहले शु’ऊर-ए-‘ग़ालिब’ लाऊँ फिर तफ़्हीम-ए-‘मीर’ करूँ
अज्ञात
कलाम
पढ़ पढ़ इलम हज़ार कताबाँ आलिम होए भारे हूहर्फ़ इक इश्क़ दा पढ़ न जाणन भुल्ले फिरन विचारे हू