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कलाम
अपना महरम जो बनाया तुझे मैं जानता हूँमुझ से मुँह फिर क्यूँ छुपाया तुझे मैं जानता हूँ
शाह ख़ामोश साबरी
कलाम
ख़ाम की जाणन सार फ़क़र दी महरम नहीं दिल दे हूआब मिट्टी थीं पैदा होए खामी भांडे गिल्ल दे हू
सुल्तान बाहू
कलाम
बंदा-ए-हक़ गदा-नवाज़ महरम-ए-राज़-ए-बे-नियाज़वाक़िफ़ है राज़-ए-किबरिया जल्वा-ए-मुस्तफ़ा भी तुम
बेदम शाह वारसी
कलाम
बुतों को महरम असरार तू ने क्यूँ क्या साहबकि ये काफ़िर हर इक ख़ल्वत-सरा-ए-दिल में रहते हैं