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कलाम
वही कुछ दहर में राज़-ए-निज़ाम-ए-दिल समझते हैंजो तेरे इ'श्क़ को कौनैन का हासिल समझते हैं
माहिरुल क़ादरी
कलाम
रिंद जो मुझ को समझते हैं उन्हें होश नहींमैं मय-कदा साज़ हूँ मैं मय-कदा बर्दोश नहीं
जिगर मुरादाबादी
कलाम
हक़ीक़त और ही कुछ है मगर हम क्या समझते हैंजो अपना हो नहीं सकता उसे अपना समझते हैं
पीर नसीरुद्दीन नसीर
कलाम
जो अहल-ए-दिल हैं वो हर दिल को अपना दिल समझते हैंमक़ाम-ए-'इश्क़ में हर गाम को मंज़िल समझते हैं
अमीर बख़्श साबरी
कलाम
फ़ना पर ए'तिबार-ए-ज़िंदगी मुश्किल समझता हूँवहाँ मदफ़न निकलता है जहाँ महफ़िल समझता हूँ
सीमाब अकबराबादी
कलाम
मुर्शिद तिरी चौखट को हम क़िब्ला समझते हैं'ज़ाहिर' उसी कूचे ने हम को भी सँवारा है