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कलाम
वही कुछ दहर में राज़-ए-निज़ाम-ए-दिल समझते हैंजो तेरे इ'श्क़ को कौनैन का हासिल समझते हैं
माहिरुल क़ादरी
कलाम
रिंद जो मुझ को समझते हैं उन्हें होश नहींमैं मय-कदा साज़ हूँ मैं मय-कदा बर्दोश नहीं
जिगर मुरादाबादी
कलाम
हक़ीक़त और ही कुछ है मगर हम क्या समझते हैंजो अपना हो नहीं सकता उसे अपना समझते हैं
पीर नसीरुद्दीन नसीर
कलाम
फ़ना पर ए'तिबार-ए-ज़िंदगी मुश्किल समझता हूँवहाँ मदफ़न निकलता है जहाँ महफ़िल समझता हूँ