मैं दंग हूँ अपने में हैरत उसे कहते हैं
मैं दंग हूँ अपने में हैरत उसे कहते हैं
पाता हूँ जहाँ ख़ुद में वहदत उसे कहते हैं
कर जम्अ' तू तनज़ीह-ओ-तश्बीह को ऐ सूफ़ी
बतलाऊँ मैं फिर तुझ को हुज्जत उसे कहते हैं
मैं दोनों जहाँ में हूँ हैं दोनों जहाँ मुझ में
वहदत उसे कहते हैं कसरत उसे कहते हैं
है ऐ'न न ख़ुद ज़ाहिर है ग़ैर न ख़ुद क़ायम
हम इस को समझते हैं हिकमत इसे कहते हैं
हैं जम्अ' में हम और फिर हैं जम्अ' से ख़ाली हम
जल्वत उसे कहते हैं ख़ल्वत उसे कहते हैं
क़तरा कहीं दरिया है दरिया कहीं क़तरा है
जो राज़ समझते हैं क़ुदरत उसे कहते हैं
मद-होशी में ला की हम 'ग़ौसी' बहुत अच्छे थे
क्या बंदा बनाया है उल्फ़त उसे कहते हैं
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