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कलाम
कहाँ जाए नज़र और जाए तो जाए किधर हो करवो ख़ुद बैठे हुए हैं हाइल-ए-हद्द-ए-नज़र हो कर
सीमाब अकबराबादी
कलाम
दीदार की दौलत लुटती है और साइल आते जाते हैंकिस शान से उन के कूचे में ऐ दिल ख़ैरातें होतीं हैं
रियाज़ सुहरावर्दी
कलाम
मैं तुझ को ग़ैर समझता था और ख़ुद को और समझता थापर चश्म-ए-ग़ौर से जब देखा तू और नहीं मैं और नहीं
इम्दाद अ'ली उ'ल्वी
कलाम
नातिक़ लखनवी
कलाम
कामिल शत्तारी
कलाम
आतिश-ए-ग़म किस के बस की है जो मेरे बस की होऔर भड़का लूँ अगर उस को बुझा सकता हूँ मैं
कामिल शत्तारी
कलाम
बेदम शाह वारसी
कलाम
कुम्हला गया था मा'रिफ़त-ए-तौहीद का जो फूलइक चश्म-ए-मस्त-ए-नाज़ में वाइ'ज़ वो खुल गया