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कलाम
शर्म-ए-रुस्वाई से जा छुपना नक़ाब-ए-ख़ाक में
ख़त्म है उल्फ़त की तुझ पर पर्दा-दारी हाए हाए
मिर्ज़ा ग़ालिब
कलाम
ज़्यादा नूर का हद से गुज़रना नार हो जाना
जभी तो सज्दा-ए-आदम से उस को शर्म आती थी