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दूसरा बाब - मा'रिफ़त-ए-तासीर-ए-आ’लम और चौथा बाब:- रियाज़त और उस की कैफ़ियत

ग़ौस ग्वालियरी

दूसरा बाब - मा'रिफ़त-ए-तासीर-ए-आ’लम और चौथा बाब:- रियाज़त और उस की कैफ़ियत

ग़ौस ग्वालियरी

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    दूसरा बाब

    मा'रिफ़त-ए-तासीर-ए-आ’लम

    तर्जुमः अज़ डॉक्टर अब्दुलवासे

    फ़ारसी तर्जुमः बहरुल-हयात अज़ ग़ौस ग्वालियारवी से इस्तिफ़ादा किया गया है

    आफ़ताब-ओ-माहताब और वह तमाम चीज़ें जो आ’लम-ए-कबीर में मौजूद हैं वह सभी आ’लम-ए-सग़ीर में भी पाई जाती हैं। आ’लम-ए-सग़ीर में आफ़ताब-ओ-माहताब की मिसाल नाक के दो सुराख़ों जैसी है। दाईं जानिब को आफ़ताब और बाईं जानिब को माहताब कहते हैं। इन्सान कभी दाईं जानिब से साँस लेता है और कभी बाईं जानिब से। दोनों जानिब से ब-यक वक़त साँस नहीं लिया जा सकता। इसी तरह साँस छोड़ने का अ’मल भी दोनों जानिब से ब-यक वक़्त अंजाम नहीं पाता। अलबत्ता ख़ौफ़ की हालत में या ब-वक़्त जिमाअ’ या बुलंदी पर चढ़ने की सूरत में या फिर दौड़ने की हालत में या खाने के वक़्त दोनों जानिब से साँस लेने या छोड़ने का अ’मल अंजाम-पज़ीर होता है। दाईं जानिब को आफ़ताब और बाईं जानिब को माह कहा जाता है। अगर किसी शख़्स को हरारत हो और वह नाक के दाईं सुराख़ को एक रात और एक दिन इस तरह बंद रखे कि उस से साँस बाहर ना जा सके तो उस की हरारत ज़ाइल हो जाएगी। इसी तरह अगर किसी को रूतूबत ज़्यादा हो गई और वह अपनी नाक के बाईं सुराख़ को बंद रखे तो उस की रूतूबत रफ़अ' हो जाएगी। हरारत-ओ-रूतूबत ज़ाइल करने का एक तरीक़ा यह है कि आदमी अपनी कुहनी को सख़्त किए हुए पहलू के नीचे रखे और हथेली को ज़मीन पर टिकाए और उँगलियों को इस तरह सीधी रखे कि कलाई बदन से अलग हो और जब दाईं जानिब की साँस बाईं जानिब को जा रही तो उस वक़्त दाएँ पहलू पर बैठ जाए। इस अ’मल के ज़रीया हरारत-ओ-रूतूबत की परेशानी से उसे नजात मिल जाएगी। अगर कोई शख़्स मज़कूरा अ’मल करे तो उसे रूई रखने की ज़रूरत दरपेश नहीं होगी। अगर कोई शख़्स ख़्वाब में आफ़ताबी-ओ-माहताबी साँस को अपने तसर्रुफ़ में लाना चाहता हो तो वह दाएँ और बाएँ पहलू पर सोने की आ’दत डाले। दाएँ पहलू पर सोने से बाईं जानिब की साँस चलेगी और बाएँ पहलू पर सोने से दाईं जानिब की साँस चलेगी। अगर कोई दिन में क़मरी साँस और रात में शम्सी साँस लेने की आ’दत डाल ले तो वह बीमारी, सुस्ती, हड्डी के दर्द, दाँत के दर्द, हरारत, रूतूबत, ठंडी, ख़ुशकी, सह्र, जादू, ज़हर,साँप, बिच्छू वग़ैरा से महफ़ूज़ रहेगा, हमेशा जवान रहेगा और बाल सफ़ेद नहीं होगा। अगर कोई बूढ़ा इस अ’मल को अंजाम दे तो उस के सफ़ेद बाल काले हो जाएंगे। सफ़र पर जाते वक़्त अगर कोई दाईं साँस के जारी होते वक़्त दायाँ क़दम आगे बढ़ाए तो ख़ैर-ओ-सलामती के साथ घर वापस आएगा। अगर कोई बादशाह या अमीर या अकाबिर-ओ-बुज़ुर्ग के पास जाना चाहता हो तो पहले वह मज़कूरा अश्ख़ास के नामों का शुमार करे। अगर अ’दद ताक़ आए तो दाईं साँस निकलते वक़्त तीन क़दम चले।अगर अ’दद जुफ़्त आए तो बाईं साँस के निकलते वक़्त तीन क़दम चले। अपनी मंज़िल पर पहुंचने के बाद दाईं साँस के अंदर उन से हम-कलाम हो। अगर बाईं साँस के अंदर हम-कलाम होगा तो नतीजा बर-अ’क्स होगा।अगर दो लश्कर मुक़ाबिल हों और सालार-ए-लश्कर दाईं साँस के निकलते वक़्त हमला करे या बाईं साँस के निकलते वक़्त दुश्मन को हमला करने दे तो फ़त्ह हासिल होगी। कोई शख़्स अगर घोड़ा, हाथी, ऊंट, चौपाया या ग़ुलाम ख़रीदना चाहता हो और वह दाईं साँस के जारी होते वक़्त ख़रीदारी का अ’मल पूरा करे तो फ़ायदा से ख़ाली ना होगा। अगर कोई शख़्स नया कपड़ा या सोने की कोई चीज़ पहनने का इरादा रखता हो तो बाईं साँस के निकलने के वक़्त उन्हें अंजाम दे। ग़ुस्ल-ख़ाना जाते वक़्त, हजामत कराते वक़्त और खाना खाते वक़्त दाईं साँस का इस्ति’माल करना चाहिए।बच्चे को मकतब या लड़कियों को निगार-ख़ाना भेजते वक़्त या बाग़-ओ-ज़ेरावत के लिए बाईं साँस का वक़्त निहायत मुनासिब है। ईलाज-ओ-मुआ’लजा या ग़ुम-शुदा की बाज़-याबी, महल्लात की ता'मीर, चौपाए को दाग़ने और घोड़े की ना'ल-बंदी के लिए दाईं साँस नेक साअ’त है।

    कोई शख़्स वक़्त-ए-फज्र दाईं या बाईं साँस के जारी होते वक़्त चलता है तो रात–ओ-दन फ़राग़त से गुज़रेगा। बा'ज़ हकीमों का ख़याल है कि अय्याम की तक़्सीम का भी ख़्याल रखा जाना चाहिए। जुमा’ और पीर के दिन बाईं साँस, हफ़्ता, इतवार, मंगल और जुमा’रात के दिन दाईं साँस और बुध के दिन दोनों साँसें फ़ाएदा-मंद हैं। दोनों क़दमों को एक-बार रखे। अगर मज़कूरा तरीक़े मलहूज़-ए-नज़र रखे जाएं तो दिन ब-ख़ैर-ओ-ख़ूबी से गुज़रेगा और सा'द दिन की ज़रूरत दर-पेश ना होगी। सुब्ह में दम-ए-शोरीदा के वक़्त कोई भी काम ना-पसंदीदा समझा गया है। अगर कोई शख़्स किसी चीज़ का दा'वा करे या दुश्मन से किसी मज्लिस में आमना सामना हो जाए तो दाईं साँस लेना शुरू कर देना चाहिए। अगर किसी को एक दिन या एक रात इस बात का इल्म ना हो सके कि कौन सी साँस जारी है और उस हालत में उस के घर में कोई औरत हामिला हो जाए तो नेक-बख़्त फ़र्ज़ंद पैदा होगा और अगर कोई औरत हामिला नहीं होती है तो उस के तमाम फ़रज़न्दों में से कोई एक बुज़ुर्ग होगा। यह बात मुहक़क़्क़ है। अगर साँस दोनों जानिब से मिल कर आर ही है तो उस के दीवाना होने का अंदेशा है। अगर बाईं साँस चार घंटे चलती है तो ग़ैबी मदद हासिल होगी और अगर आठ घंटे चलती है तो बुलंद मक़ाम मिलेगा और अगर चौदह घंटे तक चलती है तो शादी होगी।और अगर साँस एक दिन और एक रात चलती है तो उन में से कोई बुज़ुर्ग होगा।अगर दाईं साँस चार घंटे तक चलती है तो कोई चीज़ ग़ायब होगी।अगर दो घंटे तक चलती है तो दोस्तों के दरम्यान रंजिश पैदा होगी, अगर आठ घंटे जारी रहती है तो कोई बुरी ख़बर सुनने में आएगी। अगर दस घंटे चलती है तो बीमार होगा और अगर बारह घंटे चलती है तो ऐसा दुश्मन पैदा होगा जो ज़रर पहुंचाएगा। अगर एक दिन और रात चलती है तो उस की मौत वाके’ होगी। अगर कोई शिमाल-ओ-मशरिक़ की तरफ़ सफ़र का इरादा रखता हो तो उस के लिए दाईं साँस मुनासिब है और अगर जुनूब-ओ-मग़रिब के सफ़र का इरादा हो तो उस के लिए बाईं साँस बेहतर है। अगर लश्कर क़िला का मुहासरा करे और कोई पूछे कि फ़त्ह किसे नसीब होगी, उस वक़्त आलम-ए-ख़याल में अगर दाईं साँस रही होतो पूछने वाले को फ़त्ह होगी। अगर कोई किसी बुज़ुर्ग के से अपने गुम-शुदा सामान मिलने की बाबत सवाल करे और वह शख़्स मस्ऊल के उस तरफ़ से आए जिस तरफ़ से उस की साँस चल रही है तो वह सामान मिल जाएगा बसूरत-ए-दीगर उस शख़्स के जवाब में तवक़्क़ुफ़ बेहतर है।अगर कोई शख़्स किसी बीमार या किसी ज़ख़्मी शख़्स से मुतअल्लिक़ उस जानिब से कर सवाल करे जिस जानिब से साँस रही थी तो उसे मुबारकबाद दे और अगर दूसरी जानिब से रहा है तो मुआ’मला दीगर है। अगर कोई शख़्स किसी ग़ायब के बारे में सवाल करता है और वह उस जानिब से आता है जिस जानिब से मस्ऊल की साँस चल रही थी तो ग़ायब सलामत घर पहुँचेगा। और अगर दम-बस्ता की हालत में सवाल करता है तो अच्छी ख़बर नहीं है। अगर साइल दम-बस्ता की जानिब से आता है और जारी साँस की जानिब से सवाल करता है तो ग़ायब सलामती के साथ घर लौटेगा और अगर जारी साँस की जानिब से आता है और दम-बस्ता की जानिब जाकर सवाल करता है तो ग़ायब की ज़िंदगी से मायूस हो जाना चाहिए। अगर कोई शख़्स, बिच्छू, साँप के डसे हुए शख़्स को या ज़हर दिए गए शख़्स को जारी साँस की जानिब से ले कर आता है तो वह शिफ़ा-याब हो जाएगा और अगर दूसरी जानिब से लाता है तो भलाई नहीं है। अगर कोई शख़्स किसी हामिला से मुतअ’ल्लिक़ पूछे कि उसे लड़का होगा या लड़की। अगर साइल बाईं साँस निकलने की जानिब से सवाल करता है तो लड़की पैदा होगी और अगर दाईं साँस निकलने की जानिब से कर सवाल करता है तो लड़का पैदा होगा। अगर कोई बाईं साँस निकलने की जानिब से कर सवाल कर रहा है और दाईं साँस जारी थी तो लड़का पैदा होगा। अगर कोई लश्कर-कशी की इत्तिला’ दे और उस ख़बर के सही और ग़लत होने में तरद्दुद हो तो उस वक़्त यह देखा जाना चाहीए कि वह सवाल किस जानिब से कर रहा है। अगर वह दाईं साँस चलने की जानिब से कर सवाल कर रहा है तो ख़बर सही है और अगर वह बाईं साँस चलने की जानिब से कर सवाल करता है तो ख़बर ग़लत है। अगर कोई शख़्स दो बादशाह, या दो लड़के या दो आदमियों के दरम्यान जारी जंग के मुतअ’ल्लिक़ फ़त्ह के बारे में मस्ऊल की साँस के दाईं जानिब से चलते वक़्त पूछे तो फ़त्ह होगी बसूरत-ए-दीगर हज़ीमत।अगर किसी की दाईं साँस एक दिन और एक रात जारी रहती है तो उस का नतीजा बुरा होगा। और अगर दो दिन और दो रात चलती है तो उस की उम्र मुख़्तसर होगी। अगर पाँच दिन और पाँच रात जारी रहती है तो वह तीन साल तक ज़िंदा रहेगा और अगर दस दिन और दस रात जारी रहती है तो वह एक साल तक ज़िंदा रहेगा। अगर बीस दिन और बीस रात चलती है तो वह छः महीने तक ज़िंदा रहेगा और अगर पच्चीस दिन और पच्चीस रोज़ हमेशा चलती है तो वह दो महीने ज़िंदा रहेगा और अगर सत्ताईस दिन और रात चलती है तो वह पंद्रह दिन ज़िंदा रहेगा। अगर अट्ठाईस दिन और रात चलती है तो वह ग्यारह दिन ज़िंदा रहेगा। अगर तीस दिन और तीस रात चलती है तो वह दो दिन ज़िंदा रहेगा और अगर तेंतीस दिन और तेंतीस रात चलती है तो उस दिन उस की जान को ख़तरा है। अगर कोई अहम सवाल करे और सवाल करते वक़्त साँस अंदर को जाए तो वह मुहिम सर-अंजाम को पहुँचेगी और अगर साँस बाहर निकल रही है उस काम में थोड़ी ताख़ीर होगी लेकिन नतीजा अच्छा होगा। यह उतारिद के हुक्म में है। उस काम की तकमील के लिए दूसरी चीज़ दर-कार है।

    अगर कोई दाईं साँस के निकलते वक़्त मुजामअ’त करे और हमल क़रार पा जाए तो लड़का पैदा होगा और अगर बाईं साँस के निकलते वक़्त हमल क़रार पाए तो लड़की पैदा होगी। अगर कोई शख़्स यह चाहता है कि उस की बीवी उस की फ़र्मां-बरदार हो तो मुजामअ’त या बग़ल-गीरी के वक़्त अपना होंट, बीवी के होंट पर इस तरह रखे कि मर्द की दाईं साँस औरत के बाईं साँस के मुक़ाबिल इस हद तक हो जाए कि बीवी मर्द की दाईं साँस को इक्कीस मर्तबा बाईं जानिब की साँस की तरफ़ खींचे और मर्द दाईं साँस से उस की बाईं साँस को इक्कीस मर्तबा अंदर खींचे। जब यह अ’मल किया जाएगा तो दोनों एक दूसरे के फ़रेफ़्ता हो जाएंगे। अगर कोई शख़्स चाहता है कि उस का मतलब बर आवे तो वह जुमा’रात के दिन फ़ज्र के वक़्त बाईं साँस के निकलते वक़्त काम का आग़ाज़ करे। मतलब बर आएगा। दुश्मन के क़हर से बचने के लिए हफ़्ता या मंगल को तुलूअ'-ए-आफ़्ताब के वक़्त चांद के महीना की आख़िरी तीन रातों में मज़कूरा अ'मल बजा लाए। औरत जब अय्याम से गुज़र रही हो तो एक दिन में औरत से दो बार या तीन बार मुजामअ’त ना करे चूँकि रूतूबत ग़ालिब रहती है जिस से ज़रर पहुंचने का अंदेशा है।अगर बाईं जानिब से साँस निकल रही है और मुजामअ’त करे तो कोई ख़ौफ़ की बात नहीं है क्योंकि इंज़ाल-ए-मनी उसी अंदाज़ से होता है।

    अगर दाईं जानिब से साँस निकल रही है तो ग़ुरूब-ओ-जुनूब का ख़्याल पस-ए-पुश्त डाल दे।जब बाईं जानिब से साँस निकल रही हो तो मशरिक़-ओ-शिमाल को पस-ए-पुश्त डाल दे और जंग करे अल्लाह के हुक्म से फ़त्ह नसीब होगी। अगर दोनों ऐसे ही करें तो क़ासिद फ़त्ह की ख़बर लाएगा। अगर कोई सवाल करे और दोनों साँस मुसावी तौर पर जारी हों तो साँस को कुछ देर तक अंदर खींचे रहे और फिर छोड़े अगर दाईं जानिब की साँस ग़ालिब है तो बुरी चीज़ होगी और अगर बाईं साँस ग़ालिब है तो अच्छी बात होगी। खाना खाते वक़्त दाईं साँस को मलहूज़-ए-नज़र रखे और अपनी कुहनी को पहलू के नीचे रखे। जब कोई खाना इस तरह से खाएगा तो जल्द हज़म हो जाएगा। खाना खाने के पाँच घंटे बाद तक पानी ना पिए। उस के बाद थोड़ा थोड़ा कर के पानी पीए।कोई अ’मल कर के देखे फ़ाएदा होगा। अगर कोई इस्क़ात -ए-हमल से मुतअ’ल्लिक़ सवाल करे और वह दर-बस्ता की जानिब से आता है तो हमल क़रार पाएगा ब-सूरत-ए-दीगर मुआ’मला दूसरा होगा। अगर कोई निशात के वक़्त दोनों साँसों को कई मर्तबा लौटाता है तो उसे शौक़-ओ-ज़ौक़ का एहसास होगा।

    जब आ’लम-ए-कबीर में एक दायरा के अंदर आफ़ताब की माहियत और तस्वीर की तर्तीब इकट्ठा होती है तो उस का नतीजा क्या होता है, जब इन्सान यकजा होते हैं तो उस का क्या रद्द-ए-अ’मल होता है, जब अपने इख़्तियार में एक सूरत के अंदर गिरह-बंदी होती है तो उस के असरात क्या मुरत्तब होते हैं यह ज़ाहिर है। आग़ाज़-ए-क़यामत में आफ़ताब-ओ-माहताब मग़रिब की जानिब यकजा हो जाएंगे। उस दिन ज़मीन कुर्रह की तरह हो जाएगी। यह इज़ा दुक्कातिल अर्ज़ु दक्कन दक्का’ से अयाँ है। पूरा आसमान सफ़ की तरह लपेट दिया जाएगा यह कतय्यीस सिजिल्ललिल कुतुब’ के अंदर मस्तूर है। जब आ’लम-ए-कबीर के अंदर आफ़ताब-ओ-माहताब यह सूरत इख़्तियार कर लेते हैं उसी तरह इन्सान की मौत के वक़्त भी आफ़ताब-ओ-माहताब बातिन में अपने असरात, तजल्ली ख़ास की तरह छोड़ते हैं। कुछ औलियाउल्लाह ने आफ़ताब-ओ-माहताब को मुल्क क़रार दिया है और उन्हें रूहानियत का ही एक जुज़्व तस्लीम किया है। जब तक यह दोनों मुज्तमअ’ नहीं होते फ़साद-ए-जिस्म मुमकिन नहीं हो सकता। जो चीज़ें उन के अंदर हैं वह उस में ज़ाहिरन नहीं हैं। जब सआ’दत-मंद सालिक आफ़ताब-ओ-माहताब को अपने दायरा-ए-इख़्तियार में लाने का ख़्वाहिश-मंद होता है तो वह उन्हें इन तीन तरीक़ों से अपने दायरा-ए-इख़्तियार में लाता है और उस के समरात से बहरा-मंद होता है। पहला यह कि जब वह यह काम शुरू करता है तो एक साल तक फ़रहत-बख़्श और दिलकश मक़ाम में ख़ल्वत-गुज़ीं रहता है। बदन, कपड़े और जगह की पाकीज़गी का ख़्याल रखता है और लोगों से मिलना-जुलना बंद कर देता है। हाँ ज़रूरत के तहत वह लोगों से मुलाक़ातें भी करता है। खाने पीने के तरीक़ों में भी तब्दीली लाता है। वह चावल को गाय की छाछ के साथ नमक मिला कर खाता है। छाछ खट्टी नहीं हुआ करती अगर ब-वक़्त-ए-ज़रूरत उसे इस्ति’माल करना ना-गुज़ीर हो तो इस्ति’माल कर लेता है। एक साल तक वह उसी खाने पर इक्तिफ़ा करता है। दूध और चावल का इस्ति’माल उस के लिए ममनूअ' है। वह तरीक़-ए-जल्सा को भी मा’लूम करता है। इस काम के लिए दो जल्से दर-कार होते हैं। एक मुरब्बा' और दूसरा दो ज़ानू। सालिक को जो आसान मा'लूम हो उस पर अ’मल करे। अपना चेहरा आफ़ताब की तरफ़ रखे। और ख़्याल में मुंहमिक रहे। तरीक़ा यह है कि नाक के अगले हिस्सा को तन्हाई में कुछ देर के लिए देखता रहे। इस अ’मल में आँख को कुछ तकलीफ़ पहुँचेगी और उस से पानी भी निकलेगा। सर में दर्द भी होगा। चालीस दिन तक जब यह अ’मल कर गुज़रेगा तो यह तमाम तकलीफ़ें दूर हो जाएंगी। पहले उस की नज़र में शराब जैसी कोई चीज़ नज़र आएगी। उस के बाद ख़मर जैसी कोई चीज़ जो प्याले से गिर कर किसी घर में फैल गई हो दिखाई देगी और फिर माह-ए-तमाम जैसी चीज़ उस की आँखों में नमूदार हो जाएगी। उस पर ग़ैब की चीज़ें ज़ाहिर होंगी उस के बा’द वह ठुड्डी से सर के बाल तक आफ़ताब सा हो जाएगा। उस के बाद आफ़ताब-ओ-माहताब दोनों उस की नज़रों के सामने जाऐंगे। अगर उस हालत में कोई मुर्दा जानवर या बे-जान आदमी उस के सामने जाए तो वह ज़िंदा हो जाएगा। इस आ’लम में उस का बदन बे-जान सा हो जाता है। फिर उस के अंदर हरकत पैदा होती है और वह अपने मुर्शिद से आमद-ओ-रफ़्त के चंद अल्फ़ाज़ मा’लूम करता है फिर वह इस तसव्वुर को पेशानी से सर की तरफ़ ले जाता है। जब ये सर तक पहुंचता है तो एक साया रूनुमा होता है। जब यह साया तारीकी में जाता है तो सर से अ’र्श तक उस पर मकशूफ़ हो जाता है और वह जिनों-ओ-फ़रिश्तों को बे-पर्दा देखता है। वह फ़रिश्तों को सितारों की शक्ल में नज़ारा करता है। उस के असरात उस पर नुमायाँ होने लगते हैं और अब उस के लिए कोई चीज़ मुश्किल नहीं रह जाती। जब उस की नज़र पुश्त को जाती है तो रू-ए-ज़मीन और दरिया रौशन हो जाते हैं।जब उस की नज़र सामने पड़ती है तो अ’र्श से फ़र्श तक की तमाम चीज़ें उस पर मकशूफ़ हो जाती हैं। जब वह दुबारा दायरा से दर तक नज़र डालता है तो इल्म-ए-हिकमत उस के सामने जल्वा-कुनाँ होता है।फिर जब वह दर से बाहर आता है तो माहताब जाता रहता है और आफ़ताब शुआ'-रेज़ होता है। और वह वासिल ब-हक़ हो जाता है। हस्ती नेस्ती की शक्ल में जल्वा-बार होता है इसलिए ‘कुल्लु मन अ’लैहा फ़ानिन यब्क़ा वज्हु रब्बिका ज़ूल-जलालि वल इराम’ की सूरत-ए-हाल रूनुमा होती है। कुछ मुवह्हिदीन इस मक़ाम को अल्लाह से मंसूब करते हैं। वह ‘क़ुल हु-वल्लाहि अहद’ को ख़ास के साथ इतलाक़ करते हैं इस अ’मल का फ़ाएदा इस से कहीं ज़्यादा है, उसे लिखा नहीं जा सकता। उस के बाद एक साल तक यह अ’मल काम आता रहेगा। उस के बाद हर महीने एक-बार इस अ’मल को दोहराएगा फिर दूसरे कारोबार में मुंहमिक हो जाएगा। अक्सर हुकमा-ए-हिंद ने इस अ’मल को किया है और कमाल तक पहुंचे हैं। बा’ज़ अह्ल-ए-इस्लाम ने भी मज़कूरा अ’मल के ज़रीया फ़ाएदा-ए-मा'रिफ़त हासिल किया है। इस अ’मल में एहतिमाल की कोई गुंजाइश नहीं। चालीस दिन के बाद उस के नताइज यक़ीनन हाथ आएँगे।

    अगर कोई शख़्स नाक के ऊपरी हिस्सा पर नज़र करे तो उसे इंज़ाल नहीं होगा,शर्त यह है कि वह अव्वल और आख़िर तसव्वुर को फ़रामोश ना करे। अगर किसी की बसारत कमज़ोर हो तो वह अपनी आँख जिहतों में घुमाये और नाक के ऊपरी हिस्सा को तसव्वुर में रखे बीनाई ज़्यादा हो जाएगी। अगर किसी की आँख में गुल हो तो वह अपनी आँख को मज़कूरा तरीक़े पर घुमाये और पलक ना गिराए। इस अ’मल को वह चालीस दिन तक करे, गुल ग़ाएब हो जाएगा। अगर किसी को आब-ए-चश्म की शिकायत हो तो आँख को पूरी तरह खोल कर और पेट बाहर की तरफ़ निकाले और कमर-ओ-पुश्त को बराबर करे दो ज़ानूँ बैठे और नाक के ऊपर हिस्सा को अपनी नज़रों के सामने इक्कीस दिन रखे। अल्लाह के हुक्म से आब-ए-चश्म की बीमारी दूर हो जाएगी। अगर कोई यह चाहता है कि उस की आँख में दर्द ना हो तो तख़्ता-ए-सब्ज़ पर एक नुक़्ता-ए-सियाह बनाए और उस को ऐसे घर में रखे कि वहाँ ना तो रौशनी हो और ना ही तारीकी। फिर वह बैठ कर उस नुक़्ते को देखे। पलक ना गिरने दे। पहले उस की आँख से ठंडा पानी निकलेगा उस के बाद गर्म पानी टपकेगा फिर गर्म और मटयाला पानी बाहर आएगा। अगर कोई यह चाहता है कि उस के दाँत मज़बूत हूँ तो सुब्ह को ख़्वाब से बे-दार हो और दाँत को दाँत पर रख कर दबाए हुए मुँह की हवा को रोके रखे। जब पूरा मुँह लुआ’ब से भर जाए तो उसे फेंक दे। कुल्ली करे और मिस्वाक करे। अगर इस अ’मल को किया जाए तो बड़े फ़ायदे हैं।

    उन्हें फ़वाएद को रिसाला-ए-मुहीत के मुसन्निफ़ ने न्ज़म के पैराया में बयान किया है।

    (ऐ दिल तू ख़ुद से ग़ौर-ओ-फ़िक्र कर ताकि तुम्हें जल्वा-ए-माशूक़ नज़र आए)

    (अगर तुम्हारी आँख में गुल हो तो उस का बेहतर ईलाज यह है कि अपनी पलकों को ब्रहम ना होने दे)

    (अगर तुम्हें पसंद है कि मरते दम तक तुम्हारी बीनाई बाक़ी रहे तो नाक के ऊपरी हिस्सा को देखा कर)

    (अपनी आँखों की बीमारियों का ईलाज मुझ से कान धर कर सुनो और क़ुदरत-ए-रब्बानी का मुशाहिदा करो)

    (रूई के ज़रीया अपने कान से कुदूरत को निकालो और उसे आब-ए-दहन के ज़रीया अपनी हथेलियों पर मलो अगर एक साल इस अ’मल को करते रहोगे तो तुम्हें किसी सुरमे की हाजत नहीं होगी)

    (दाँत को मज़बूत बनाने के लिए मेरी एक बात सुनो। सुब्ह उठ कर दाँतों को दाँतों पर इतनी मज़बूती से दबाए रखो कि तुम्हारा मुँह लुआ’ब से भर जाए उसे फेंक डालो दूसरी बार फिर ऐसा ही करो।अगर तुम इस अ’मल को बयान किए गए दस्तूर के मुताबिक़ करते रहोगे तो तुम्हारे दाँत मज़बूत हो जाएंगे)

    (साँप के ज़हर को दूर करने के लिए बाईं जानिब की साँस भरो। दाईं जानिब के साँस से तुम्हारे जिस्म की बुरूदत ज़ाइल हो जाएगी)

    अगर किसी को फोड़ा, सूजन, सोज़िश या इस तरह की दूसरी बीमारी हो जाए तो सुब्ह को लुआ’ब-ए-दहन उस पर मल लिया करे। ठीक हो जाएगा। कान के अंदर रूई डाल कर उस से गंदी निकालो और उस को हथेली पर रख कर लुआब-ए-दहन से मल कर आँख में डालो। आँख की अक्सर बीमारियाँ रफ़अ' हो जाएंगी। अगर कान की इस गंदगी को शराब में डाल कर आदमी को पिलाया जाए तो वह बेहोश हो जाएगा और उसे होश में आने में काफ़ी देर लगेगी। अगर किसी पर रूतूबत ग़ालिब हो तो वह पुरानी रूई कान से निकाल कर उसे अपनी नाक में रखे और उस रूई की हवा को साँस के ज़रीया अंदर खींचे।इस से उस के अंदर हरारत पैदा हो जाएगी और अगर उसे खाले तो इउस का गला बंद हो जाएगा। खट्टा खाने से इन्सान को किस तरह नुक़्सान होगा। उस को इस तरह समझना चाहिए।

    खाने पीने से इन्सान की नश्व-ओ-नुमा होती है। अगर किसी दरख़्त को कुछ दिन तक खट्टे पानी से सैराब करते रहें तो यक़ीनन वह सूख जाएगा और वह लकड़ी बन जाएगा। जब आदमी खट्टा खाता है तो उसे भी नुक़्सान होता है और वह माद्दा के फ़ैज़ से बे-बहरा हो जाता है। उस का माद्दा ठंडा हो जाता है और ख़ुश्की बुरूदत पर ग़ालिब जाती है। दीगर अल्फ़ाज़ मसलन कीमिया, हिमिया, रीमया, सीमिया एक दूसरे के साथ बराबर इस्ति’माल होते हैं। कीमिया गुज़रगाह-ए-दुनिया है। माहियात-ओ-मा’दनियात, ज़ीनक़, अखरोट,मगस वग़ैरा इस की मिसालें हैं। जो शख़्स भी पारा, मिस की हक़ीक़त से बा-ख़बर होगा उसे एक दूसरे के मिज़ाज से मुवानिसत का इल्म होगा। जो शख़्स मा’दनियात, नबातात और वज़्न-ए-आतिश के मिज़ाज से वाक़िफ़ होगा क़ाइमुन-नार दवा तैयार करेगा और उस के लिए शम्सी -ओ-क़मरी का हुसूल मुम्किन हो जाएगा। हीमिया ख़ुद को ग़ायब करने का नाम है। यह असमा-ए-अर्बईन में ‘या जलील अल-मुतकब्बिर’ के ज़रीया हासिल होता है। इस का ज़िक्र इस फ़क़ीर ने जवहिर-ए-ख़मसा में किया है और अपने तजरबात बताए हैं। बा'ज़ हिन्दी जादू का भी ज़िक्र किया गया है। दरख़्तों और जानवरों से हासिल किए गए बा'ज़ तरकीबात से कुछ लोग सुरमा बनाते हैं। रीमया अपने जिस्म को फ़ना कर के दूसरे जिस्म में लाने का इल्म है। जब वह जिस्म भी कमज़ोर हो जाता है तो उसे छोड़ कर वह दूसरे वजूद को इख़्तियार कर लेता है। ता-क़यामत यह सिलसिला जारी रहता है। सीमिया का तीन रुक्न है। एक रुक्न तर्तीब-ए-अश्या है। जब तमाम चीज़ों को सा’द औक़ात में नफ़्स के मुवाफ़िक़ जमा’ करते हैं तो यह मुवस्सिर हो जाता है। दूसरा रुक्न अस्मा-ए-ख़ुदावंदी से तिलिस्म की सूरत में हासिल होता है। ख़्वाह अ’रबी में हो या फ़ारसी में या फिर हिन्दी में। तीसरा रुक्न दा’वत-ए-नुक़ती से दायरा-ए-ज़ब्त के ज़रीया हासिल होता है और आ’मिल उसे मुर्शिद-ए-कामिल से हासिल करता है। जब यह ग़ायब हो जाता है तो कोई उस पर मुत्तला’ नहीं हो सकता। वह जो कुछ ज़ाहिर किया हुआ होता है उस से ना-बलद हो जाता है। और आख़िर में वह नुक़्सान उठाने वाला हो जाता है। वह अगर ख़ानदान के किसी फ़र्द को बे-बाक देखता है तो उस का ज़िक्र नहीं करता। इसलिए कि वह फ़क़्र हासिल किए हुए होता है। दर-हक़ीक़त तस्ख़ीर-ए-ख़ल्क़ की क़ुव्वत उस वक़्त तक हाथ नहीं आती जब तक दारैन से वह बर-ख़ुर्दार ना हो जाए।

    चौथा बाब:- रियाज़त और उस की कैफ़ियत

    तर्जुमः अज़ डॉक्टर अब्दुलवासे

    फ़ारसी तर्जुमः बहरुल-हयात अज़ ग़ौस ग्वालियारवी से इस्तिफ़ादा किया गया है

    इंसानी जिस्म की हिक्मत का इंहिसार पानी पर और इस की साख़्त बुनियाद ज़मीन के ऊपर क़ाएम है। वजूद, अ’नासिर, वुसअ'त और इन्क़िबाज़ वग़ैरा आग की ताक़त से ही अपना वजूद क़ायम रखते हैं। बुलंदी, तस्वीर-ए-हरकत, ताक़त और तनफ़्फ़ुस, हवा के इदराक से अ’मल-पज़ीर होते हैं। इदराक-ए-उमूमी, माहियत-ए-जुज़्ई, नुत्क़-ए-इंसानी, अहलियत-ए-दरयाफ़्त, शनाख़्त-ए-हक़ीक़त वग़ैरा ख़ुदा की जानिब से वदीअ’त की गई हैं। आ’लम-ए-सग़ीर के अंदर मज़कूरा तमाम चीज़ें एक दूसरे के साथ मिल कर दबदबा-ए-वजूद को हासिल करती हैं। आ’लम-ए-सग़ीर के अ’नासिर से ही गोश्त, ख़ून, हड्डी,आग वग़ैरा वजूद-पज़ीर होते हैं। अ'र्श की यौमिया हरकत से ही तमाम अज्साम और सितारे को एक दायरा फ़राहम किया गया है। जब यह दायरा क़ाएम हो जाता है तो आ’लम-ए-सग़ीर बहुत ज़्यादा वसीअ’ हो जाता है। क़ुरआन-ए-ज़मीन अज्साम के दायरा का एक मर्कज़ है। यह निहायत मुख़्तसर वक़्त में बिखरी हुई धूल की शक्ल इख़्तियार कर लेता है। ख़ुदा-ए-तआ’ला ने अपनी क़ुदरत से उन्हें ऐसा मलिका अ’ता किया है जिस के ज़रीया वह एक दूसरे को मुर्ताबित रखते हैं। इसी तरह आ’लम-ए-सग़ीर भी क़ाएम है। आ'लम-ए-सग़ीर जहाँ भी इस साख़्त और बुनियाद पर क़ाएम है वहाँ इसी हिक्मत-ए-अ’मली और नज़्म-ओ-ज़ब्त के साथ मसरूफ-ए-अ’मल है। जिस्म मुल्क और बादशाह रूह की तरह है। जब मुल़्क बर्बाद हो जाता है तो बादशाह भी रख़्त-ए-सफ़र बांध लेता है। जब मुल्क में अमन-ओ-अमान क़ाएम रहता है तो बादशाह फ़रासत-ओ-कियासत के साथ हुक्मरानी करता है और उस के फ़रोग़ की फ़िक्र करता रहता है। उस के मुल्क में तबाही, किसी चीज़ की कमी और किसी क़िस्म का अफ़्सोस नहीं पाया जाता। लेकिन जब दूरबीन आँखों में निस्यान के मीठे ज़ाइक़े का मंज़र रू-नुमा होने लगे, ग़फ़लत की ख़्वाहिश जन्म लेने लगे और हवा-ओ-हवस घर करने लगे तो उन चीज़ों को दूर किया जाना चाहिए, इसलिए कि यह अच्छी अ’लामतें नहीं हैं। इस से अ’दम-ए-तहफ़्फ़ुज़ पैदा होगा और वीरानी-ओ-गुमनामी पैदा होगी। अल्लाह-तआ’ला का इरशाद है कि जिसे हिक्मत अ'ता की गई उसे ख़ैर-ए-कसीर अ’ता कर दिया गया। अगर हिक्मत के बग़ैर काम होने लगे तो इस्म-ए-‘अल-हकीम’ का कोई मतलब नहीं रह जाएगा। जब अल्लाह तआ’ला ने तुझे अपनी इनायतों से अ’दम से वजूद में लाया और तुझे ज़िंदगी बख़्शी तो तुझे भी ख़ुद को तबाह-ओ-बरबाद नहीं करना चाहिए और हवा-ओ-हवस का शिकार नहीं होना चाहिए। अपने बदन को नज़्म-ओ-ज़ब्त का ख़ूगर बनाओ, अपने ख़्याल-ओ-तसव्वुर को बातिन से हम-आहंग करो और अपनी ख़्वाहिशात को मो'तदिल रखो। इसलिए कि जब तुम ने अ’ज़्मत के झंडे को उठा लिया तो फिर उस वजूद के अंदर दिल के सिवा बज़ातिही कोई हरकत नहीं है। दिल रहमत-ए-इलाही का मज़हर है। जब उसे दूसरे के हिजाब से बाहर लाते हैं तो यह अम्र-ए-क़दीम की जानिब से मामूर होता है और अल्लाह के हुक्म की उसे ताईद हासिल होती है और यह ला-फ़ानी और मुकम्मल तौर से मुस्तवल्ली हो जाता है और कोई धोका या पर्दा उसे अपने हिजाब में नहीं लेता। हर-दम और हर-क़दम बातिन के अंदर तरक़्क़ी और तजल्ली रू-नुमा होती है। हासिल-ए-कलाम यह कि जिस्म की मिसाल पानी से भरे हुए अबनान या हवा से भरे हुए मशक की तरह है। अगर यह पानी-ओ-हवा एक जगह जमा’ हो जाए तो इन्क़िबाज़ की सूरत पैदा हो जाएगी। जब यह बदन पानी और ग़िज़ा से भरा हुआ हो तो अ’मल करना मुश्किल हो जाएगा। बदन को नर्मी के साथ सिर्फ तदबीर के ज़रीया ही दुरुस्त किया जा सकता है। इस से उसे कोई नुक़्सान नहीं पहुंचता और वह तबाह नहीं होता। माँ के शिकम में जब बच्चा एक-बार फ़ैज़ पा लेता है तो उसे ज़िंदगी मिल जाती है। अगर हर मर्तबा बातिन को उस के मिक़दार में फ़ैज़ मिलता रहे तो वह उसी क़दर फ़ैज़ पाता रहेगा। शर्त यह है कि वह कस्ब-ओ-रियाज़त में हवा और पानी को उसी क़द्र जज़्ब करता रहे ताकि बदन की सफ़ाई होती रहे और वह लतीफ़ को मिसाल तक और कसीफ़ को मिसाल से मुत्तसिल करता रहे और जो मौज़ूँ-ओ-मुनासिब ना हो उसे रफ़अ' दफ़अ’ करे। जब कोई शख़्स ऐसा करता है तो जिस्म की सफ़ाई आसन से हासिल होती है और आसन 84 हैं। हर एक की अलग ख़ासियत और अलग अलग फ़ाएदे हैं। इस किताब में 21 आसनों का ज़िक्र किया गया है। ख़ुदा के फ़ज़्ल-ओ-करम से उन से ही तमाम मक़ासिद हासिल हो जाएंगे। इस अ’मल की शर्त यह है कि आ’मिल अ’मल शुरू करते वक़्त गोशा-नशीनी इख़्तियार करे,रोज़ा रखा करे और ना-मुनासिब चीज़ों से अपनी नज़र को दूर रखे। मुजाहिदा के आग़ाज़ में जब उसे किसी क़िस्म का ज़ो’फ़ दिखाई दे तो उस से ख़ौफ़ ना खाए। उस तरफ़ ध्यान ना दे और मसरूफ-ए-अ’मल रहे। चूँकि मुजाहिदा-ए-अव्वल का ज़माना मौसम-ए-सरमा की तरह और उस का आख़िरी ज़माना मौसम-ए-बाराँ और मौसम-ए-बहार की तरह होता है। अपनी मशग़ूलियत के लिए दिन या रात में कोई वक़्त मख़्सूस कर ले।

    ज़िक्र-ए-हंस या’नी ज़िक्र-ए-अव्वल:-

    यह जोगियों की पहली रुहानी ताक़त है। जोगी अपने मुरीदों को इस अ’मल की तल्क़ीन करते हैं। इस अ'मल में सख़ावत से काम लिया जाता है। जोगियों की इस्तिलाह में इसे करम कहते हैं। जोगी ज़ोहद-ओ-वरा' को धर्म कहते हैं। उन के यहाँ तक़्वा सीने पर कपड़ा डाले,कमर में फ़ोता लटकाए, सरों पर ख़ाक डाले और चेहरे पर राख मले हुए दुनियावी अ'लाइक़ से दूरी बनाने का नाम है। यह दुनिया के तमाम लोगों से मुमताज़ समझे जाते हैं। यह लोग नेस्ती को हस्ती का नाम देते हैं। यह लोग तौहीद के धागे को शुरू से आख़िर तक मज़बूती से थामे रहते हैं। यह लोग ज़ाहिर-ओ-बातिन को एक ही शय तसव्वुर करते हैं। यह लोग ख़्याल, फ़िक्र और नेक सूरत का मरजा' एक ही चीज़ को तसव्वुर करते हैं। मा'शूक़ की जानिब से जो कुछ भी होता है उन्हें वह अच्छा और सज़ावार समझते हैं। कोई भी इस आसन को समझ सकता है। इस आसन को सहज आसन कहते हैं। इस आसन में सर, कमर और पुश्त को सीधा रखे हुए पिंडली को पिंडली के ऊपर रखा जाता है। बाएँ पैर के टख़ने को दाएँ ज़ानूँ के सिरे के नीचे और दाएँ पैर के टख़ने को बाएँ ज़ानूँ के सिरे पर रखते हैं। दोनों हाथों को लपेटे मशग़ूल–ए-अ’मल रहते हैं। जब सांस निकलती है तो हंसु कहते हैं। हंस रब्ब-ए-रूही का एक इज़हार है। जब सांस अंदर लेते हैं तो सोह कहते हैं सोह रब्बुल-अरबाब से इबारत है। जब रब्ब-ए-रूही रब्बुल-अरबाब की सूरत इख़्तियार करता है तो हर हुस्न में तजल्ली-ए-वाहिद का ज़ुहूर होता है और यह मुशाहिदा, मुकाशफ़ा और मुआ'इना का महल क़रार पाता है। अगर इस अ’मल पर मुवाज़िबत किया जाए तो उस पर ग़ैब के दरवाज़े खुल जाऐंगे।

    ज़िक्र-ए-अलख:-

    अलख तहत से इबारत है। जो शख़्स इस अ’मल में मशग़ूल होना चाहता है उसे चाहिए कि वह दो ज़ानू बैठे। दाएँ हाथ की मुट्ठी को बंद किए हुए उस को दाएँ ज़ानूँ पर रखे। दाएँ हाथ की कोहनी को मुट्ठी तक लाए। दायाँ हाथ मुट्ठी को बाँधे हुए डाढ़ी के नीचे टिकाए सुरीन को सख़्त रखे। नाफ़ को पुश्त की तरफ़ ले जाए। नाफ़ के नीचे से जो कि मक़ाम-ए-आतिश है सांस ऊपर खींचे। इस वक़्त ख़्याल में इस क़द्र गुम हो जाए कि उसे हाल की ख़बर ना रहे।

    ज़िक्र-ए-कहकी:-

    जब ज़ाकिर इस अ’मल को करने का इरादा करे तो वह कुरबत आसन में बैठे। कुरबत कछवे की शक्ल में बैठने को कहा जाता है। कछवा दो तरीक़े से बैठता है। ज़ाकिर इस आसन में बैठते वक़्त हाथ बाएँ ज़ानू पर रख कर बाईं हथेली को सुरीन के नीचे रखे हुए दाएँ ज़ानू को खड़ा रखता है। बाएँ पैर की उँगलियों को दाएँ पैर के टख़ने पर रखे हुए दाएँ और बाएँ हाथ को बाएँ ज़ानू पर रखता है और ही-ही कहते हुए बाएँ ज़ानू की तरफ़ ले जाता है। लेकिन इस दौरान वह सर को नीचे नहीं करता। वह कंधे को पहले थोड़ा टेढ़ा करता है फिर सीधा करता है और इस क़द्र सख़्त किए हुए होता है कि गर्दन की रगें खड़ी हुई मा’लूम पड़ती हैं। दोनों होंट एक उंगली के बराबर अलग किए हुए और दांतों को एक दूसरे पर दबाए हुए सांस को सीने से सख़्ती से बाहर खींचता है और फिर अन्दर लेता है। ऐसा उस वक़्त तक करता रहता है जब तक कि वह ख़ुद से बे-ख़बर और वासिल ब-हक़ ना हो जाए।

    ज़िक्र-ए-निरंजन:-

    जब कोई तालिब इस शुग़्ल में मशग़ूल होना चाहता है तो चाहिए कि वह गर्भ आसन की तरह बैठे। इसे गर्भ आसन इसलिए कहा जाता है कि जब बच्चा शिकम-ए-मादर में होता है तो इसी आसन में रहता है। इस आसन में बाएँ पैर को दाएँ पैर पर रखे, सुरीन को दोनों पैर पर टिकाए और सर को दोनों ज़ानू के दरम्यान उठाए हुए दोनों कोहनियों को पसलियों पर रखे रहे। दोनों हाथों को कान पर किए हुए नाफ़ को पुश्त की तरफ़ ले जाए। इस अ’मल के दौरान नाफ़ से ऐसी रमक़ पैदा होती है जिसे निरंजन कहते हैं। निरंजन ला-तअ’य्युन से इबारत है। इस में सांस को रोक कर बत्न के दरम्यान नीचे से ऊपर तक इस हद तक घुमाया जाता है कि तालिब को चशम-ए-बातिन, वह्म-ए-तैरान, फ़िक्र-ए-सैरान और बड़े बड़े ख़तरात का मुशाहिदा चारों जानिब से होने लगता है।

    ज़िक्र-ए-चक्री:-

    जब कोई शख़्स पूरी दुनिया को एक नुक़्ता की शक्ल में देखने और तमाम आ’लम को तजद्दुद-ए-अमसाल के ज़रीया हस्ती-ए-मुतलक़ के अंदर दरयाफ़्त करने का मुतामन्नी हो तो चाहिए कि वह ज़िक्र-ए-चक्री को अपने ऊपर लाज़िम कर ले। चक्री गर्दिश से इबारत है। उसे तफ़रिक़ा में आँख की रौशनाई और चमक से ता’बीर किया जाता है। जब कोई इस ज़िक्र को शुरू करता है तो वाज़िह नुक़्ता को नुक़्ता-ए-वाहिद की शक्ल में मुशाहिदा करता है। उसे यह दुनिया एक ज़र्रा की शक्ल में नज़र आती है क्योंकि यह दायरे का मर्कज़ है। इस आसन में तालिब दोनों ज़ानू को मुत्तसिल किए हुए हाथ पर हाथ रखे हुए बैठता है। अपनी जगह पर बैठे हुए आँखों को छः जिहतों में घुमाता है। एक साल के बाद आँखें घूमने लगती हैं। बीनाई अपने हाल पर बाक़ी रहती है। इस का फ़ायदा इस से कहीं ज़्यादा है। अ'मल करने से इस के फ़ाएदे हासिल होंगे।

    ज़िक्र-ए-नबोली:-

    जब सालिक इस ज़िक्र का इरादा करे तो पहले चार ज़ानू बैठे। दोनों हाथों को दोनों ज़ानू पर रखे। सर, कमर और पुश्त को बराबर रखे हुए नाफ़ को अपनी हालत पर छोड़ दे। इंगला और बंगला दोनों को हरकत में रखे जैसे कोई कपड़ा बुनने वाला हरकत में रहता है। इंगला आफ़ताब और बंगला माहताब को कहा जाता है। जब यह दोनों दायरा में होते हैं तो सैर-ए-ला-यतनाही हासिल होती है। इस का फ़ायदा मुशाहिदा ही से हासिल होगा।

    ज़िक्र-ए-गोरखी:-

    अगर सालिक अपने बातिन को साफ़ रखने का तालिब हो तो वह जोगियों के अ’मल गोरखी को ब्रह्म आसन के ज़रीया अंजाम दे। इस आसन में पांव के दोनों तलवों को यकजा कर के दोनों तलवों के सिरों को दोनों ख़ुसियों के नीचे रखे। दोनों हाथ को पुश्त पर लपेटे रखे। उस के बा’द सर को थोड़ा टेढ़ा किए हुए जिस्म को धीरे धीरे जुंबिश दे। फिर अपनी ज़बान की सांस को दाँत पर सख़्ती के साथ रोके रहे। वक़तन-फ़वक़तन अपनी आँखों को बंद करे। जब वह ताक़त के साथ नाक के ज़रीया छोड़ेगा तो वह इस तरह की दो सांस ले पाएगा। इस अ’मल को मुसलसल फ़ज्र और अ’स्र के बाद अंजाम देना चाहिए। इस का फ़ायदा अ’मल से ही मा’लूम होगा।

    ज़िक्र-ए-अकूनचन:-

    अगर सालिक अ’मल-ए-अकूनचन को अंजाम देना चाहता है तो वह सिद्ध आसन की तरह बैठे। अकूनचन कशिश से इबारत है। सूफ़ियों की इस्तिलाह में मक़्अ'द को नीलोफ़र कहा जाता है। नीलोफ़र ख़ाना-ए-आतिश और हवा के बाहर आने की जगह है। इस आसन में दोनों सुरीन को सख़्त कर के यकजा किया जाता है और फिर नीलोफ़र को इस तरीक़े से ऊपर की जानिब किया जाता है कि उस से एक क़िस्म की आग पैदा होती है जिस से तमाम क़िस्म की कसाफ़तें जल जाती हैं और जो चीज़ें भी ग़ैर आ'दी होती हैं वह ख़ुद-ब-ख़ुद ख़ाकिस्तर हो जाती हैं। इस का फ़ायदा अ’मल से ही ज़ाहिर होगा।

    ज़िक्र-ए-अनहद सबद:-

    जब सालिक चाहता है कि हमेशा एक हुज़ूर में मशग़ूल रहे और किसी वक़्त जुदा ना हो तो उसे ज़िक्र-ए-अनहद में मशग़ूल रहना चाहिए। अनहद सबद ला-यज़ाली चीज़ को कहा जाता है। इस अ’मल में सालिक दो ज़ानू बैठता है और अपनी दोनों सुरीनों को पांव के तलवे पर,अपने दोनों हाथों को कान पर और शहादत की दोनों उँगलियों को कान के ऊपर, नर अंगुश्त को कान के पीछे और तीनों उँगलियों को खुली रखे हुए उस नुक़्ता तक ले जाता है जहाँ से आवाज़ पैदा होती है। इस अ'मल में आवाज़ बग़ैर अ'लामत के अ'लामत हुआ करती है। कोई शख़्स अगर देर तक हाथ ऊपर को ना रख सके तो वह फ़िलफ़िल को सुती कपड़े में रख कर उसे दोनों कानों में डाल कर इस आसन को पूरा करे ताकि उस की उँगलियों से ही आवाज़ पैदा हो सके। रूई के इस अ’मल के ज़रीया भी उसी तरह की आवाज़ पैदा होगी। इस के फ़ायदे अ’मल से ही ज़ाहिर होंगे।

    ज़िक्र-ए-नसबद:-

    कोई अगर ज़िक्र-ए-नसबद करना चाहता हो तो वह मुरब्बा' बैठे। सर,कमर और पुश्त को बराबर रखे। दोनों हाथों को बराबर किए हुए दोनों नर उँगलियों को मिला कर ठुड्डी के नीचे, दोनों कोहनियों को नाफ़ के नीचे पेट के ऊपर रखे और तसव्वुर को उम्मुद-दिमाग़ तक ले जाए। उम्मुद-दिमाग़ एक खिड़की है जिसे हिन्दी जोगी ब्रह्म रंध्र कहा करते हैं। इस खिड़की को ज़िंदगी, मौत, ख़्वाब, क़रार-गाह, तजल्ली, तअ’य्युन-ए-ऐन-ए-ज़ात और फ़लकुल-हयात कहा जाता है।

    ज़िक्र-ए-सीतली:-

    सीतली ठंडी हवा से इबारत है। जब सालिक चाहता है कि ज़िक्र-ए-सीतली को अंजाम दे तो ज़मीन पर कंवल की तरह बैठे। उस के दाएँ पैर की पुश्त पसलियों के नज़दीक बाएँ ज़ानू पर और उस के बाएँ पैर की पुश्त पसलियों के नज़दीक दाएँ घुटने पर हो। दोनों होंटों को बंद किए हुए बाएँ पैर की पुश्त को निगाह के नज़दीक रखे ताकि उस का तमाम पेट और उस के तमाम आ'ज़ा हवा से भर जाएँ। इस अ’मल से वह चिड़ियों की तरह हल्का फुलका हो जाएगा। होंटों को बंद कर के नाक से सांस ले। जब कोई यह अ’मल करता रहता है तो उस के लिए सांस लेना आसान हो जाता है। जब कोई यह अ’मल कर गुज़रता है तो उस के लिए कान से सांस लेना आसान हो जाता है। जो कोई अपने पेट को साफ़ करना चाहता हो तो वह पायानी हिस्सा से यह अ’मल करे। इस के फ़ायदे कहीं ज़्यादा हैं। अ’मल करने से मा’लूम होगा।

    ज़िक्र-ए-भुजंगम:-

    भूजंगम साँप को कहा जाता है। साँप जिस तरह से सांस खींचता है सालिक भी उसी तरह यह अ’मल करता है। जब सालिक भूजंगम अ’मल करना चाहता हो तो चाहिए कि वह दो ज़ानू बैठ कर मुँह को बंद किए हुए नाक से सांस ले और उसे नाफ़ के नीचे तक पहुंचाए और फिर उसे नाफ़ से ताक़त के साथ बाहर लाए ताकि वह उम्मुद-दिमाग़ तक पहुंच जाए। फिर उसे धीरे धीरे छोड़े कि वह नाफ़ तक पहुंच जाए। फिर ताक़त से उसे बाहर लाए। फिर जहाँ तक वह कर सके इसी तरह करता रहे। इस अ’मल के दौरान वह ध्यान रखे कि सांस नाक और मुँह से ना लेवे। जब सांस लेना ना-गुज़ीर हो जाए तो नाक से सांस ले-ले। फिर शुरू से वैसा ही करे जैसा कि बताया गया है। बा’ज़ सालिकीन इस अ'मल को इस तरह अंजाम देते हैं कि वह एक या दो दिन एक सांस से ही काम चलाते हैं। कुछ लोग इस से ज़्यादा भी कर लेते हैं।

    ज़िक्र-ए-भूरक:-

    जब सालिक यह चाहता है कि उस का बदन रूई की मानिंद हल्का हो तो चाहिए कि वह जल्सा-ए-मा’हूद इख़्तियार करे और नाक से सांस लेना शुरू कर दे, शिकम को थोड़ी हरकत दे ताकि सांस उस के हाथ और पांव के दरम्यान चलती रहे। हाथ को हाथ से मले ताकि उस के अंदर भी हवा आती रहे। यह अ’मल इतना करे कि उस के तमाम आ’ज़ा मुश्क-बू हो जाएं। इस से उस के अंदर पानी पर चलने की ताक़त जाएगी। जब वह इस अ’मल पर दवाम बरतेगा तो एक साल के बाद उस के अंदर मज़कूरा सिफ़त पैदा हो जाएगी।

    ज़िक्र-ए-तरावत:-

    जब किसी का इरादा ज़िक्र-ए-तरावत का हो तो उसे मुरब्बा’ बैठ जाना चाहिए। अपने दोनों हाथों की उँगलियों को बा-हम मिला कर पिंडलियों पर रखे,अपनी सांस को ऊपर की तरफ़ खींचता रहे। जब सांस हल्क़ तक पहुंचे तो उसे थोड़ा सख़्त कर के उम्मुद-दिमाग़ की जानिब से नाक के ज़रीया अंदर खींचे। अपनी नर-उंगली और उँगलियों से तेज़ी के साथ नाक को पकड़े रहे ताकि उम्मुद-दिमाग़ तक पहुंच जाए। जितना ज़्यादा उस में रख सकता हो रखे रहे और फिर उसे बाहर लाए और फिर उम्मुद-दिमाग़ तक ले जाए। ऐसा करने से ख़ब्ता-ए-सर दूर हो जाएगा और उसे मुकाशफ़ा-ए-अ'लवी-ओ-सिफ़ली हासिल होगा। अ’मल करने से ही इस का फ़ायदा समझ में आएगा।

    ज़िक्र-ए-कछरी:-

    कछरी दम-बस्तन से इबारत है। इस में सालिक ज़बान के लिए हल्क़ के दरवाज़े को बंद कर देता है। सालिक पहले मरहला में हाल-ए-ज़बान को छ: महीना तक संगी-नमक और फ़िलफ़िल से दोबार मलता है। अपने दोनों हाथों से कपड़ा भिगो कर उसे दराज़ करता है। कभी सुपारी नहीं खाता। अंगुश्त-ए-शहादत और नर-अंगुश्त के नाख़ुन को बढ़ा लेता है, ज़बान के नीचे वाली काली और लाल रंग वाली दो रगों में से एक को अपने नाख़ुन से पकड़े हुए अक्सर-ए-ज़बान को बंद किए हुए हल्क़ की खिड़की की तरफ़ इस हद तक दराज़ करता है कि पूरी ज़बान हल्क़ के सुराख़ में जाती है और वह दम-बस्ता हो जाता है। जब वह ज़बान को हल्क़ तक ले जाता है तो डाढ़ी की ठुड्डी टेढ़ी-ओ-लचीली हो जाती है। जब मुआ’मला यहाँ तक पहुंच जाता है तो वह सालों तक एक सांस से ज़िंदा रह सकता है। इस वक़्त चूँकि ज़बान हल्क़ की खिड़की तक पहुंच जाती है लिहाज़ा जब वह ज़बान को बाहर निकालता है तो नाक का अगला हिस्सा बराबर हो जाता है। उस वक़्त उसे यह मा’लूम हो जाता है कि वह अपने मक़्सद को पहुंच गया है। उसे चाहिए कि अब मशग़ूल का तरीक़ा दरयाफ़्त करे और सिद्ध आसन में बैठे। वह अपनी नशिस्तगाह ज़मीन को बनाए। ज़ानू और पिंडली को ख़ुद में चिपकाए हुए बाएँ पांव के तलवे पर दाएँ पांव की पुश्त को रखे। बाएँ पांव के सिरे को दोनों ख़ुसियों के नीचे रखे ताकि पेशाब और मनी की रग बंद रहे। दोनों हाथों को दाएँ और बाएँ ज़ानू के ऊपर बरअ’क्स रखे रहे। वह हल्क़ की खिड़की को बंद कर के ऊपर बताए गए तरीक़े को निगाह में रखे। इस अ’मल के फ़ायदे को भी मलहूज़-ए-नज़र रखे ताकि सालिक की सरगर्मी का उसे इल्म होता रहे और वह ख़्वाब-ए-ग़फ़लत, भूक, सोज़िश,सुस्ती, काहिली, सर्दी, गर्मी, हयात, मौत और तमाम बशरी तक़ाज़े से मुनज़्ज़ह हो जाए। इस अ’मल से गुज़रने के बाद सालिक का सुलूक अफ़्लाक में हुआ करता है। कुंजरी को जोगियों की लुग़त में अफ़्लाक कहा जाता है। जब वह इस शुग़्ल में कामिल हो जाता है तो फ़र्श से अ'र्श तक और फ़र्श से तहतुस-सुरा तक की दूरी उस के लिए सिर्फ़ एक क़दम की मुसाफ़त के बराबर रह जाती है यहाँ तक कि तहत-ओ-फ़ौक़ और वस्त, तीनों उस के लिए एक दायरा की तरह हो जाते हैं। तीनों आ’लम के दायरे उस सालिक के तसर्रुफ़ में जाते हैं। इस के दूसरे फ़वाइद अ’मल से ज़ाहिर होंगे।

    ज़िक्र-ए-मलीका:-

    जब कोई अ’मल-ए-मलीका में मशग़ूल होने का इरादा रखता हो तो सुब्ह ख़्वाब से बेदार हो, वुज़ू करे और मशरिक़ की जानिब रूख़ कर के नज़र आसमान की तरफ़ रखे और आँख इस क़दर खोले कि यह ख़ीरा हो जाए। हवा की ख़ुनकी अपनी आँख में लेता रहे फिर उसे खोले और बंद करे। इसी तरह से यह अ’मल बार-बार करता रहे यहाँ तक कि आफ़ताब तुलूअ' हो जाए। इस के फ़वाइद बेशुमार हैं। एक अ'शरा अ'मल करने के बाद उस के फ़ायदे ज़ाहिर होंगे।

    ज़िक्र-ए-खुंबक:-

    जब कोई ज़िक्र-ए-खुंबक शुरू करना चाहे तो वह जिस्म के आ’ज़ा पर मौजूद हवा को पूरक से उम्मुद-दिमाग़ तक बिला किसी जब्र-ओ-क़ुव्वत के ले जाए। अगर जब्र से काम लेगा तो आ’ज़ा टूट जाऐंगे। जब यह उम्मुद-दिमाग़ तक पहुंच जाए तो चश्म को दराज़ किए हुए ज़बान को हल्क़ में चिपकाए रहे और सांस को आहिस्ता-आहिस्ता नाक के ज़रीया अंदर आने दे। फिर अ’मल-ए-पूरक को नए सिरे से शुरू करे। सांस जब अन्दर को जाती है तो उसे पूरक और जब बाहर आती है तो उसे खुंबक कहते हैं। जब उसे छोड़ देते हैं तो रीजक कहा जाता है।

    ज़िक्र-ए-सभा आसन:-

    गर्दन, रग और पुश्त को ताक़त देने, खाने को हज़म करने और बदन के जोड़ों में पोशीदा रूतूबतों को ख़ुश्क करने के लिए इस आसन को किया जाता है। इस आसन में दाएँ पैर को पिंडली के साथ बाएँ रान पर और बाएँ पैर को पिंडली के साथ दाएँ रान पर नरमी और आहिस्तगी से रखते हैं यहाँ तक कि इस का आ’दी हो जाए। शुरू शुरू में यह मुश्किल अ’मल है। पुश्त को सीधा रखे और अपने हाथ अपने दोनों ज़ानू पर और बाज़ुओं को खड़ा रखे और जिस्म के बालों को हरकत दे जो इस मक़ाम को पा लेगा उस के अंदर कम बोलने और कम खाने की आ’दत पैदा हो जाएगी।

    ज़िक्र-ए-जिगर आसन:-

    इस आसन में मज़कूरा बाला तरीक़े की रौशनी में बाएँ हाथ को दाएँ कंधे की जानिब रखे और होंटों को उस्तुवार किए हुए सर को बदन के साथ चारों जानिब घुमाए। दिल में ज़िक्र-ए-अलख करता रहे। जब रुकना चाहे तो अपने हाथों को दोनों घुटने पर रखे हुए दोनों पांव को पकड़ ले। इस दौरान ज़िक्र से ग़ाफ़िल ना रहे। जब इस अ’मल पर इस्तिक़ामत बरतेगा तो उसे मुशाहिदा-ए-ग़ैबी हासिल होगा। उस के अंदर अ’मल का शौक़ पैदा होगा। जब वह इस मक़ाम पर पहुंच जाएगा तो उसे ला-इलाज बीमारियों जोज़ाम, बर्स, नासूर,बासूर और दिक़ से छुटकारा मिल जाएगा। दूसरी बीमारियाँ भी इस आसन से ख़त्म हो जाती हैं। यह तमाम आज़मूदा-ओ-मुजर्रब हैं।

    थंब आसन:-

    इस आसन में भी मुरब्बा’ बैठते हैं। अपने दोनों हाथों को पिंडलियों के दरम्यान रखा जाता है और ताक़त से दोनों हाथों को रोके रखते हैं। ज़िक्र-ए-अलख को कभी फ़रामोश नहीं करते। जब इस मक़ाम पर पहुंच जाते हैं तो माद्दा-ए-ख़ाक-ओ-आब कम हो जाता है और हवा-ओ-आग का मेआ'र बुलंद हो जाता है।

    ज़िक्र-ए-सचर आसन:-

    इस आसन में मज़कूरा बाला तरीक़े से मुरब्बा’ बैठते हैं। दोनों हाथों को दोनों पिंडलियों और रान के दरम्यान रखे हुए सज्दा में जाते हैं और दोनों हाथों को गर्दन पर रखते हैं और ज़िक्र में मशग़ूल रहते हैं। जब कोई इस मक़ाम पर पहुंच जाता है तो उस के दिल से परियों, आदमियों और जानवरों का ख़ौफ़ जाता रहता है यहाँ तक कि अगर आसमान भी ज़मीन पर गिर जाए तो उसे किसी क़िस्म का ख़ौफ़ लाहिक़ नहीं होता। यह एक मर्तबा-ए-अ’ज़ीम है।

    ज़िक्र-ए-सन आसन:-

    इस आसन में पहले दोनों हाथों को मुट्ठी बाँधे हुए ज़मीन पर रख कर ख़ुद को मुअ’ल्लक़ रखा जाता है। दाएँ पाँव और बाएँ पांव की उँगलियों को कोहनियों पर रखे हुए ज़िक्र किया जाता है। जो इस मक़ाम को पहुँचेगा उसे परिंदों की तरह परवाज़ की ताक़त हासिल होगी और वह रुहानी शख़्स कहलाएगा।

    अल्लाह तआ’ला ज़्यादा बेहतर जानता है।

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