अम्र-ओ-ख़ल्क़
वो आ’लम जो कि मूजिद के अम्र से दफ़्-अ’-तन बे-माद्दा-ओ-मुद्दत के मौजूद हो गया आलम-ए-अम्र है। बर-अ’क्स आ’लम-ए-ख़ल्क़ के जो माद्दा-ओ-मुद्दत के साथ मुक़य्यद है।
बसीत चीज़ का अ’दम से वजूद में लाना अम्र है और मुरक्कब चीज़ का पैदा करना किसी चीज़ से साथ तब्दील-ए-सूरत के ख़ल्क़ है।
अला ल-हुल ख़ल्क़ु वल्-अम्रु त-बा-र-कल्लाहु रब्बुल आ’लामीन* (अल-आ’राफ़)
ख़बरदार हो जाओ कि वास्ते इसी के है ख़ल्क़ और अम्र बहुत बरकत वाला है। अल्लाह परवर-दिगार आ’लमों का।
इन्-न-मा अम्रुहु इज़ा अरा-द शैयन अय्-य-क़ू-ल लहू कुन फ़-यकून* (यासीन)
बे-शक हुक्म उस का जब इरादा करे किसी चीज़ का ये है कि फ़रमाता है वास्ते उस के कि हो जा पस वो हो जाता है।
अल्लाह त-आला का अम्र ही मौजूदात की इल्लत है जो चीज़ ना थी, फिर हो गई वो अम्र-ए-इलाही से हुई। उस ने मा’दूम को अ’दम से वजूद में आने का हुक्म दिया और वो आ गया। उस का अम्र हक़ीक़ी है। मजाज़ से आलूदा नहीं। उस का अम्र मख़्लूक़ के अम्र पर क़यास नहीं किया जा सकता। मख़्लूक़ या’नी मुह-द-सात जब किसी चीज़ का अम्र करते हैं तो अम्र करने से क़ब्ल बहुत सी चीज़ों के मुहताज होते हैं, फिर उस में उनकी ख़्वाहिशात और अग़राज़ भी शामिल होती हैं। फिर ये भी मुम्किन है कि उन के अम्र की ता’मील हो या न हो। ब-ख़िलाफ़-ए- उम्र-ए-बारी त-आ’ला के कि वो ग़र्ज़ और मुद्दत और फ़ुतूर और क़ुसूर और तम्अ’ और ख़ौफ़ सब से पाक है। जब वो किसी चीज़ की इख़्तिराअ’ और ईजाद का इरादा फ़रमाता है तो हुक्म देता है कि हो जा और वो चीज़ मौजूद हो जाती है। उस चीज़ का ये मौजूद होना हुक्म के साथ बिला त-क़द्दुम-ओ-त-अख़्ख़ुर वक़ूअ’ में आता है और ये बात किसी और के लिए मुम्किन नहीं । गोया यूं समझना चाहिए कि उस का इरादा ही उस का अम्र है और उस का अम्र ही कुन का कहना है और उस के कुन का कहना चीज़ का हो जाना है। ये फ़र्क़-ए-लफ़्ज़ी सिर्फ़ तफ़्हीम के लिए है वर्ना इल्म-ए-तौहीद में इन सब के एक ही मा’ना हैं। अ’लावा अज़ीं अल्लाह त-आ’ला का लफ़्ज़-ए-कुन हुरूफ़ और सूरत का मज्मूआ’ नहीं। ना क़ाफ़ व नून की सूरत-ए-तर्कीबी को उस में दख़्ल है बल्कि उस का कुन दर अस्ल अक़्ल का फ़ैज़ान है, और कभी मुंक़ता' नहीं होता। क्योंकि क़ुदरत कभी मुंक़ता' नही होती बल्कि क़ुदरत की शुआएं कभी हिस्स में ज़ाहिर होती हैं कभी अक़्ल में मख़्फ़ी।
अम्र-ए-इलाही के तीन मरातिब हैं- (1) हक़ी-क़-तुल अम्र, (2) असरुल अम्र (3) सू-र-तुल अम्र।
(1) हक़ी-क़-तुल अम्र इल्म-ए-ज़ाती है जो शामिल है कुल चीज़ों पर।या’नी उन पर भी जो हो चुकी हैं, और उन पर भी जो होने वाली हैं और उन पर भी जो होने वाली नहीं हैं। उस का अम्र उस के इल्म-ओ-सिफ़ात के लवाज़िमात से है और उस की सिफ़ात उस की ज़ात के लवाज़िमात में से हैं। अल्लाह त-आ’ला का अम्र, फे़अ’ल-ओ-इन्फ़िआ’ल नहीं। ना उस में इन्क़िताअ’-ओ-इत्तिसाल है बल्कि उस का अम्र उस की मुराद है और उस की मुराद उस के इल्म का एक भेद है चुनांचे हक़ी-क़-तुल अम्र को इल्म-ए-इलाही भी कहा जा सकता है।
(2) असरुल अम्र जिबरईल हैं। अम्र-ए-इलाही का असर ये है कि अज्साम को हरकत हो और रूह की पैदाइश ज़ुहूर में आए। अम्र की हक़ीक़त इलाहियत से है और अम्र का असर रुबूबियत से मुतअ’ल्लिक़ है। क़ुलिर रुहु मिन अम्रि रब्बी से अर्वाह का जो अम्र से मुस्तफ़ाद होना पाया जाता है उस से मुराद अम्र-ए-ज़ाती नहीं बल्कि अम्र के आसार हैं। अम्र के आसार ये हैं कि अहकाम-ए-इलाही की तब्लीग़ हो और अश्या में उनके मरातिब के लिहाज़ से तर्तीब क़ायम रहे और ये ख़िदमत जिबरईल के सिपुर्द है।
(3) सू-र-तुल अम्र मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम हैं। इल्म-ए-इलाही और मशिय्यत-ए-इलाही और इरादा-ए-इलाही और अहकाम-ए-इलाही की आप सूरत हैं। आप ही अस्ल हैं जुमला अंबिया की। आप ही अव्वल-ए-ख़ल्क़ हैं। आप ही ख़ातिमुर रुसुल हैं। आप ही अफ़ज़लुल बशर हैं। आप ही सरवर-ए-काएनात हैं। आप ही ख़ुला-स-तुल मौजूदात हैं। आप बंदगान-ए-ख़ुदा के मुस्लिह, उनके रहबर-ओ-रहनुमा, उनको अल्लाह की जानिब अल्लाह के हुक्म से मद्ऊ फ़रमाने वाले, अल्लाह की जनाब में उनकी शफ़ाअ’त फ़रमाने वाले, उनके और अल्लाह के दरमियान वास्ता और वसीला हैं। सल्लल्लाहु अलैहि व आलिहि व सहबिही व जमीइ औलाइहि फ़ी उम्-म-तिहि अज-म-ईन व बा-र-क व सल्-ल-म।
ऊस्त इजाद-ए-जहाँ रा वास्त: *दरमियान-ए-ख़ल्क़-ओ-ख़ालिक़ राबित:
शाहबाज़-ए-लामकानी जान-ए-ऊ*रहमतुल लिल आ’लमीन दर शान-ए-ऊ
आरिफ़-ए-अतवार-ए-सिर्र-ए-जुज़ व कुल * ख़ल्क़-ए-अव़्वल रूह-ए-आ’ज़म अक़्ल-ए-कुल
इल्लत-ए-ग़ाई ज़े अम्र-ए-कुन फ़कां* नीस्त ग़ैर अज़ ज़ात-ए-आँ साहिब-क़िराँ
रहनुमा-ए-ख़ल्क़ व हादी-ए-सुबुल * मुक़्तदा-ए-अंबिया ख़त्मुर रुसुल
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