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Sufinama

अशिया

तलब-ए-तमाम और इश्क़-ए-मुदाम की वो कैफ़ीयत जो याफ़्त-ओ-ना-याफ़्त में यकसाँ रहे।

आश्नाई:अल्लाह त-आ’ला का त-अल्लुक़ मख़्लूक़ के साथ सिफ़त-ए-ख़ालिक़ीयत की जिहत से।

अश्या:जम्अ’ है शय की और शय मसदर है शाअ-यशाउ से जिस के मा’नी चाहने और मशिय्यत-ए-इलाही के हैं। इस में ये इशारा मर्कूज़ है कि कोई चीज़ ब-ग़ैर इरादा-ए-इलाही और ब-ग़ैर ख़ुदा के चाहे ज़ुहूर-पज़ीर नहीं होती। और ना उस के ज़ुहूर में आने से क़ब्ल उस का कोई वजूद ख़लक़ी होता है। मगर हर चीज़ अपने ख़लक़ी वजूद से क़ब्ल ख़ुदा के इल्म में होती है। मशीयत और इरादा-ए-इलाही से उसे ज़ुहूर का लिबास पहनाया जाता है। उस से क़ब्ल ना कोई उस का माद्दा होता है ना कोई उस की असलीयत होती है। लफ़्ज़-ए-शय में ख़ुदा के ख़ालिक़-ए-कुल होने का ईमा है। हर चीज़ ज़बान-ए-हाल से पुकार रही है कि मैं ख़ुद ब-ख़ुद ज़ुहूर में नहीं आई बल्कि एक क़ादिर-ए-मुतलक़ की मशीयत और क़ुदरत का नतीजा हूँ।

अतवार: जम्अ' है तौर की। वजूद-ए-हक़ीक़ी के वो शुयून हालात जो अ’र्श से फ़र्श तक आ’लम-ए-हवादिसात के जुमला तअ'य्यूनात में झलक रहे हैं सब अतवार हैं। ज़ात ने अ-ह-दीयत से आलम-ए-शहादत की जानिब और इतलाक़ से इंसान-ए-कामिल में तनज़्ज़ुलात के जिन जिन मराबित में हो कर नुज़ूल फ़रमाया वो सब अतवार हैं। हक़ीक़तन ज़ात-ए-अक़दस जुमला अतवार शुयून-ओ-मरातिब-ओ-हालात से ब-हुक्म अलआ-न क-मा का-न बिज़-ज़ात मुनज़्ज़ह पाक है लेकिन जिन तनव्वुआ’त का ज़ुहूर ज़ेर-ए-हुक्म-ए-‘कुल्लू यौमिन हु-व फ़ी शान’ हर-आन होता रहता है वह सब ए’तबारी हैं और तमकीन-ए-हक़ीक़ी ज़ाती से जुदा हैं। आ’लम के हर फ़र्द और हर जुज़्व पर उन अतवार-ए-ए’तबारी का एक सिलसिला है जो जारी रहता है। मसलन ज़ैद पहले ज़ात-ए-बहत में मख़्फ़ी था। वहाँ से ब-अतवार-ए-मरातिब-ए-तनज़्ज़ुलात अपने बाप की पुश्त में आया। फिर अपनी माँ के रहम में मुंतक़िल हुआ। वहाँ नुतफ़ा की सूरत में उस की इब्तिदा हुई फिर अ’लक़ा बना, फिर मुज़्ग़ा हुआ। फिर उस में हड्डियां नुमूदार हुईं। फिर गोश्त पुर किया गया। फिर उस पर पोस्त चढ़ाया गया। उस वक़्त तक आजिज़ मुज़्तर और बे-हिस-ओ-हरकत रहा। फिर हक़-तआ’ला ने उस में रूह-ए-इन्सानी फूंकी। उस रूह-ए-इन्सानी का उस पर वो परतव पड़ा जिसे रूह-ए-हैवानी कहते हैं। फिर उस में क़ुवा-ए-तबई और नफ़्सानी और हैवानी जो सब रूह-ए-इन्सानी ही के परतव हैं ज़ाहिर हुए। फिर वो शिकम-ए-मादर से बाहर आया और उस का नाम ज़ैद रखा गया। फिर बचपन, शबाब और बुढ़ापे के अतवार से गुज़र कर मौत की वादी में उतरा। फिर अतवार-ए-बर्ज़ख़ से गुज़र कर और क़ब्र और हश्र से तजावुज़ कर के उसने जन्नत या दोज़ख़ की राह ली और अल्लाह तआ’ला के क़ौल ख़-ल-क़-कुम अतवारन को पूरा किया। इसी को सैर-ए-अतवारी वजूदी अनफ़ुसी कहते हैं। और आफ़ाक़ में हक़ाइक़-ए-इलाहिया और तनज्ज़ुलात-ए-कौनिया की सैर को सैर-ए-अतवारी वजूदी आफ़ाक़ी कहते हैं।

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