हक़ीक़त-ए-इन्सानी
इन्सान आ’लम का ख़ुलासा है। ब-लिहाज़-ए-इर्तिबात-ए-मा’नवी मौजूदात को इन्सान से वो निस्बत है जो जिस्म को रूह से है। अपने आप को किसी आइना में देखना इस से मुख़्तलिफ़ है कि अपने पर बराह-ए-रास्त नज़र डाली जाए। जब अल्लाह तआ’ला ने चाहा कि अपने अस्मा-ए-हुस्ना के ए’तबार से अपना मुआ’इना एक ऐसे आइने में करे जो जुमला शुयून-ए-इलाही के परतव को क़ुबूल करने की सलाहियत रखता हो तो उस ने आ’लम ईजाद किया और उस आलम में अपना ख़लीफ़ा हज़रत-ए-आदम अलैहिस्सलाम को बनाया। सुन्नत-ए-इलाही इसी तौर पर जारी है कि पहले जिस्म को दुरूस्त और आरास्ता किया जाता है। जब जिस्म में रूह के क़ुबूल करने की सलाहियत पैदा हो जाती है तो उस में रूह फूंकी जाती है।
फ़-इज़ा सौ-वय-तुहु व-न-फ़ख़्तु फ़ीहि मिन रूही। (अल-हुज्र व साद)
पस जब तस्विया कर लूं मैं उस का (या’नी जिस्म-ए-आदम का)और फूँक दूँ बीच उस के अपनी रूह। पहले तो तस्विया-ए-बदन होता है फिर नफ़ख़-ए-रूह और तस्विया से मुराद है रूह के क़ुबूल करने की सलाहियत का पैदा होना। चुनांचे जब आ’लम में जो ब-मंज़िला-ए-बदन के है रूह क़ुबूल करने की सलाहियत पैदा हो गई तो आदम को पैदा किया गया जो रूह-ए-आलम हैं। और जब आदम में रूह क़ुबूल करने की सलाहियत पैदा हुई तो उन में अल्लाह तआ’ला ने अपनी रूह फूंकी। रूह फूँकने से मुराद ये है कि अपनी ज़ात और सिफ़ात का परतव आदम पर डाला। चूँकि आदम का तस्विया पूरा हो चुका था उन्होंने उस परतव को क़ुबूल कर लिया और अमानत-ए-इलाही के मु-त-हम्मिल हो गए। काएनात की किसी और चीज़ में ये इस्ति’दाद ना पाई गई कि इस जामिइ’यत की मु-त-हम्मिल हो सके चुनांचे जुमला अस्मा-ओ- सिफ़ात-ए-इलाही ख़िल्क़त-ए-इन्सानी में ज़ाहिर हुए और वजूद-ए-इन्सानी ने जमीअ’-ए-मरातिब-ए-उलवी व सिफ़ली को घेर लिया:
मा जाम-ए-जहाँ नुमाए ज़ातेम* मा मज़हर-ए-जुमला-ए-सिफ़ातेम
मा नुस्ख़ा-ए-नामा-ए-इलाहेम* मा गन्ज-ए-तिलिस्म-ए-काएनातेम
हम सूरत-ए-वाजिबुल वजूदेम* हम मा’नी-ए-जान-ए-मुम्किनातेम
बर-तर ज़े मकान-ओ-दर मकानेम* बेरुँ ज़े जिहात-ओ-दर जिहातेम
हर-चंद कि मुज्मल-ए-दो कौनेम* तफ़्सील-ए-जमीअ’-ए-मुज्मलातेम
(मग़रिबी)
जिस क़दर सिफ़ात अल्लाह तआ’ला में हैं उसी क़दर सिफ़ात इन्सान में हैं ब-इस्तिस्ना-ए-वजूब-ए-ज़ाती। अल्लाह तआ’ला हय्य और समी’अ–ओ-बसीर है। इन्सान हय्य और समी’अ–ओ-बसीर है। फ़र्क़ ये है कि इन्सान अपनी हयात और अपने सम्अ’-ओ-बसर में अल्लाह का मुहताज है और अल्लाह किसी बात में किसी का मुहताज नहीं। अख़बार-ए-इलाही तरजुमान-ए-हक़ की ज़बानों पर इन ही सिफ़ात के पैराया में ज़ाहिर होते हैं जो इन्सान अपने नफ़्स में पाता है लेकिन दर-अस्ल उस की हयात हमारी हयात से मुख़्तलिफ़ और उस का सम्अ’-ओ-बसर हमारे सम्अ’-ओ-बसर से मुख़्तलिफ़ है। इस इख़्तिलाफ़ का बाइस उस का वजूद और हमारा हुदूस है। उसने अपने नफ़्स को ज़ाहिर-ओ-बातिन की सिफ़ात से मौसूफ़ फ़रमाया है । आ’लम को भी ख़ौफ़-ओ-रजा के दरमियान रखा अपने को जमाल-ओ-जलाल से मौसूफ़ फ़रमाया। इन्सान को भी हैबत और उन्स पर वज़ा’ किया। यही हाल जुमला सिफ़ात का है। इन ही सिफ़ात-ए-मु-त-क़ाबिला को दो हाथों से ता’बिर किया गया।
मा-म-न-अ’-क अन तस्जु-द लिमा ख़लक़्तु बि-य-दय-य। (साद)
किस चीज़ ने मना’ किया तुझ को इस से कि सज्दा करे तू उस को जिस को कि मैं ने अपने दोनों हाथों से बनाया।
अलावा उस के कि अस्मा-ए-मु-त-क़ाबिला आदम में मुज्तमा’ हुए। दो हाथों से इशारा उस जामीइयत की जानिब भी है जो उन में सूरत-ए-हक़ और सूरत-ए-ख़ल्क़ के जमा’ होने से पैदा हुई। आदम अलैहिस्सलाम ब-ए’तबार अपने ज़ाहिर के ख़ल्क़ की सूरत और ब-ए’तबार अपने बातिन के हक़ की सूरत हैं। इसी जामिअ’त ने उन्हें मुस्तहिक़-ए-ख़िलाफ़त बनाया। मौजूदात-ए-आ’लम के ज़र्रा ज़र्रा में हक़-तआ’ला का ज़ुहूर है। अगर ये ज़ुहूर ना होता तो मौजूदात-ए-सुवरी का वजूद ही ना होता लेकिन हक़-तआ’ला का इन ज़र्रों में ज़ुहूर हर ज़र्रा की इस्ति’दाद के मुताबिक़ है। ज़ुहूर-ए-अतम सिवाए इन्सान के किसी और चीज़ में नहीं। जुमला सिफ़ात-ए-इलाहिया के साथ मजमूई तौर पर सिवाए इन्सान के और कोई फ़ाइज़ नहीं।
व-अल्-ल-म आ-द-मल अस-मा-अ कुल्-ल-हा (अल-बक़रा)
और ता’लीम किए आदम को अस्मा सब के सब से इसी जानिब इशारा है कि जुमला अस्मा-ओ-सिफ़ात का आदम पर परतव डाला और उन्हों ने उस परतव को क़ुबूल कर लिया। इसी सलाहियत की ब-दौलत उन्हें फ़रिश्तों पर फ़ज़ीलत हासिल हुई और वो मस्जूद-ए-मलाइक बने। जिस तरह इस्म-ए-अल्लाह जुमला अस्मा-ए-इलाही का जामेअ’ है, उसी तरह इन्सान जुमला सिफ़ात-ए-इलाही का जामेअ’ है। पस हक़ीक़त-ए-इन्सानी मज़हर है इस्म-ए-अल्लाह की। जब काएनात में उन अस्मा का ज़ुहूर है जिनका जामेअ’ इस्म-ए-अल्लाह है तो हक़ायक़-ए-आ’लम इल्मी और ऐ’नी ए’तबारात से हक़ीक़त-ए-इन्सानी ही के मज़ाहिर हैं, गोया आ’लम में इन्सान ही की हक़ीक़त ज़ाहिर है बाद:
अज़ मा मस्त शुद नै मा अज़ू*क़ालब अज़ मा हस्त शुद नै मा अज़ू
इसी बिना पर आ’लम को इंसान-ए-कबीर और इन्सान को आ’लम-ए-सग़ीर कहते हैं। हक़ीक़त-ए- इन्सानी का तफ़्सीली ज़ुहूर आ’लम में है और आ’लम का इज्माली ज़ुहूर इन्सान में है। या इन्सान की तफ़्सीली सूरत आ’लम है और आ’लम की इज्माली सूरत इन्सान है। जो कुछ आ’लम में है सब इज्माली तौर पर इन्सान में है और जो कुछ इन्सान में है सब तफ़्सीली तौर पर आ’लम में है,
मरा ब-हेच किताबे मकुन हवाल: दिगर * कि मन हक़ीक़त-ए-ख़ुद रा किताब मी-बीनम (मग़रबी)
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