नबी के विर्सा
इन्क़िताअ’-ए-नबुव्वत के बा’द क़ुतुबियत-ए-मुत-ल-क़ा औलिया-ए-अल्लाह में मुंतक़िल हो कर आ गई। ये हालत ख़ातिमुल औलिया के ज़ुहूर तक रहेगी। फिर उस के बा’द ये सिलसिला भी ख़त्म हो जाएगा। और दाइरा पूरा हो जाएगा। फिर हश्र-ओ-नश्र-व-जन्नत-ओ-नार का दौर शुरू होगा।
वो यही औलियाउल्लाह हैं जो आँहज़रत सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की मुताबअ’त और मोहब्बत से ज़िल्ली तौर पर इंसान-ए-कामिल के मर्तबा पर फ़ाइज़ हो कर ख़िलाफ़त-ए-इलाही और नियाबत-ए-रसूल के मन्सब पर मुमताज़ हुए हैं और इमाम-ए-आख़िरुज़्ज़मान के ज़ुहूर तक हर ज़माना में रहेंगे। ये लोग इस ज़मीन पर अल्लाह के क़ाएम-मक़ाम और रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के वारिस होते हैं। ज़मीन पर तसर्रुफ़ की क़ुव्वतें वो अल्लाह तआ’ला से अख़ज़ करते हैं और अस्मा-ओ-सिफ़ात के मु-त-वल्ली होते हैं। इस के लिए वो मारिफ़त-ए-इलाही के मुहताज होते हैं। इसलिए कमाल-ए-इन्सानी का इज़हार इस पर है कि इन्सान अल्लाह और उस के फ़ज़्ल-ओ-कमाल को ब-क़द्र-ए-क़ुव्वत-ए-बशरी मा’लूम करे। गोया कमाल-ए-ख़िलाफ़त या कमाल-ए-इन्सानी का दार-ओ-मदार कमाल-ए-मा’रिफ़त पर है। सालिक मसाफ़त-ए-बो'द को तय करता है। कसरत-ए-तअ’य्युनात की मनाज़िल को उबूर करता है। सिफ़ात-ए-बशरी से दूर हो कर अस्ल हक़ीक़त से वासिल होता है तजल्ली-ए-ज़ात से मु-त-हक़्क़ हो कर मज़हर-ए-जमीअ’–ए-अस्मा व सिफ़ात-ए-इलाही बनता है और ताज-ए-ख़िलाफ़त पहन कर इतलाक़ से तक़य्युद की जानिब वापस आता है और दूसरों की तकमील का ज़रीया बनता है। गोया ख़्वाजा-ए-दो-जहाँ बन कर कार-ए-गु़लामी अंजाम देता है। मुताबअ’त और उबूदीयत के मक़ाम में तमकीन इख़्तियार करता है। जादा-ए-इन्क़ियाद से तजावुज़ नहीं करता। जुमला मरातिब-ओ-शुयूनात के हुक़ूक़ अदा करता है और उनकी मुहाफ़िज़त करता है तरीक़त उस की रविश होती है। शरीअ’त उस का शिआ'र और हक़ीक़त उस का मक़ाम-ए-अस्ली। ऐसा शख़्स इस ज़मीन पर अख़लाक़-ए-इलाही की चलती फिरती तस्वीर और इस दुनिया के रहने बसने वालों के लिए रहमत और बरकत का बाइस होता है। इसी की शान में अल्लाह तआ’ला फ़रमाता है:
व-ज-अलना लहु नूरन यम-शी बिहि फ़ीन नास (अल-अनआ’म)
यानी और हम ने उसे एक नूर दिया है जिसे लेकर वो लोगों में चलता फिरता है।
नाज़िल है ज़मीन पे किबरियाई*बंदे के लिबास में ख़ुदाई
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