Sufinama

आहू पर अशआर

आहू: ये अस्लन फ़ारसी

ज़बान का लफ़्ज़ है।उर्दू में अस्ली हालत और अस्ली मा’नी में ही माख़ूज़ है।सबसे पहले 1645 ई’स्वी में सनअ’ती के “क़िस्सा-ए-बे-नज़ीर” में इसका इस्ति’माल मिलता है।आहू का लफ़्ज़ी मा’नी हिरन होता है। तरीक़त में आहू का इस्ति’माल उस फ़र्द-ए-कामिल के लिए होता है जो वादी-ए-क़ुद्स की फ़ज़ा में ज़ात की मुख़्तलिफ़ शानों से लुत्फ़-ओ-इ’ज़्ज़त हासिल करता है और ब-हालत-ए-सुरूर इस मैदान में चौकड़ियाँ भरता है।हिरन का शिकार शिकारियों के लिए एक दिल-चस्प मश्ग़ला है इसलिए अ’लामाती तौर पर शिकार के लिए भी इसका इस्ति’माल होता है।

हद पूछो हमारी वहशत की

दिल में हर दाग़ चश्म-ए-आहू है

आसी गाज़ीपुरी

अरे दिल क्यूँ हुआ है रे अबस तूँ वहशी-ए-दश्ती

किसी आहू-निगहाँ की तुजे अच्छर का छर है रे

तुराब अली दकनी

इस भरे शहर में करता हूँ हवा से बातें

पाँव पड़ता है ज़मीं पर मिरा आहू की तरह

मुज़फ़्फ़र वारसी

ज़रा कुछ और भी हिम्मत निकल जाये मेरी हसरत

वह आता है नज़र बाब-ए-असर नातवाँ आहू

बेदम शाह वारसी

राम किस तरह करेगा कोई सय्याद उसे

अपने साए से भी रम करता है आहू अपना

रिंद लखनवी

चला आता है जो सय्याद-ए-ज़ालिम दाम-ए-गेसू ले

कि शायद आहू-ए-दिल कूँ करेगा शिकार आख़िर

तुराब अली दकनी

aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

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