ख़ुदा-हाफ़िज़ है उस गुल की कमर का
ग़ज़ब झोंके चले बाद-ए-सहर के
कमर सीधी करने ज़रा मय-कदे में
अ'सा टेकते क्या 'रियाज़' आ हे हैं
दहन है छोटा कमर है पतली सुडौल बाज़ू जमाल अच्छा
तबीअत अपनी भी है मज़े की पसंद अच्छी ख़याल अच्छा
है बारीक तार-ए-नज़र से ज़्याद
दिखाई न देगी कमर देख लेना
अ’द्म की हक़ीक़त खुलेगी तमाम
तिरी ज़ुल्फ़ जब ता कमर जाएगी
वह्म है शक है गुमाँ है बाल से बारीक है
इस से बेहतर और मज़मून-ए-कमर मिलता नहीं
न कमर उस की नज़र आए साबित हो दहन
गुफ़्तुगू उस में अ’बस उस में है तकरार अ’बस
न था शबाब कमर में 'रियाज़' ज़र होता
तो दिन बुढ़ापे के भी नज़्र-ए-लखनऊ करते
मिरे क़त्ल को आए इस सादगी से
छुरी हाथ में है न ख़ंजर कमर में
क्या लगाया यार ने सीने में ही तीर-ए-निगाह
क़ौस की मानिंद मेरा कज कमर होने लगा
aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere