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उदासी संत रैदास जी- श्रीयुत परशुराम चतुर्वेदी, एम. ए., एल-एल. बी.

हिंदुस्तानी पत्रिका

उदासी संत रैदास जी- श्रीयुत परशुराम चतुर्वेदी, एम. ए., एल-एल. बी.

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    रोचक तथ्य

    Udasi Sant Raidas ji, Anka-1, 1936

    संत रविदास अथवा रैदास जी कबीर साहब के समकालीन समझे जाते है और कहा जाता है कि इन दोनों महात्माओं का जन्म काशीपुरी में हुआ था तथा, स्वामी रामानंद से उपदेश ग्रहण करने के कारण, ये दोनों आपस में गुरुभाई भी होते थे। परंतु इन वा अन्य ऐसी बातों के सबंध में कोई पुष्ट प्रमाण नहीं मिलने जिन के आधार पर इन्हें निर्विवाद रूप से सर्वसम्मत मान लिया जाय। अतएव बहुत से लोगों की यह भी धारणा जान पड़ती है कि रैदास जी, वास्तव में, महाराष्ट्र अथवा राजपूताने के रहने वाले थे। जो हो, इन के प्राप्त पदों की भाषा में भिन्नता होने एवं इन के अनुयायियों के अनेक प्रदेशों में पाए जाने के कारण, यह अनुमान करना अनुचित नहीं जान पड़ता कि, जहाँ कहीं भी इन का जन्म हुआ हो, इन्होंने भिन्न भिन्न स्थानों में पर्यटन अवश्य किया था।

    रैदास जी की उपलब्ध रचनाओं में से सिक्खों के प्रसिद्ध आदिग्रंथ में संगृहीत—

    हरि के नाम कबीर उजागर।

    जनम जनम के काटे कागर।।

    निमत नामदेउ दूधु पीआइआ।

    तउ जग जनम संकट नहीं आइआ।।

    तथा

    नामदेव कबीर तिलोचनु सघना सनु तर।

    कहि रिवदास सुनहु रे सेतहु हरिजीव ते सभै सरै।।

    और,

    जाकै ईदि बकरीदि कुलगऊ रे बंधु करहि

    मानी अहि सेख सहीद पीरा।

    जाकै बाप वैसी करी पूत ऐसी सरी

    तिहू रे लोक परासिध कबीरा।।

    एवं, एक दूसरे संग्रह, रैदास जी की बानी में आए हुए—

    नामदेव कहिए जाति कै ओछ।

    जाको जस गावै लोक।।

    भगनि हेतु भगता के चले।

    अंकमाल ले बीठल मिले।।

    ....................................

    निरगुन का गुन देखो आई।

    देही सहित कबीर सिधाई।।

    पद, 37

    के देखने से प्रकट होता है कि इस महात्मा ने जिस समय इन पदों को बनाया था उस समय तक नामदेव, कबीर, त्रिलोचन, सदना और सेना नामक प्रसिद्ध संतों का देहावसान हो चुका था और वे, कम से कम कुछ पहले से ही, अपनी साधनाओं के फलस्वरूप पूर्ण ख्याति भी प्राप्त कर चुके थे। अतएव, यदि इन पंक्तियों के आधार पर निर्णय किया जावे तो, रैदास जी को हम अधिक से अधिक कबीर साहब का एक अल्पकालिक समकालीन मात्र मान सकते हैं और यदि कबीर साहब का निधनकाल संवत् 1505 अथवा सन् 1448 ई. निश्चित हो तो, उक्त दशा में, हम रैदास जी के प्रारंभिक जीवनकाल को ईस्वी सन् की पंद्रहवी शताब्दी के प्रथम वा द्वितीय चतुर्थांश में रख सकते है।

    रैदास जी के विषय में आज तक ऐतिहासिक चर्चा करने का कष्ट कदाचित् किसी ने नहीं उठाया, अतएव जो कुछ अभी तक ज्ञात है वह अधिकतर ऐसा है जिस में संदेह एवं विवाद का स्थान पद पर हो सकता है। जनश्रुति के अनुसार ये स्वामी रामानंद के प्रसिद्ध 12 शिष्यों में गिने जाते है और यह परंपरा कम से कम ईस्वी सन् 16 वीं शताब्दी अथवा नाभादास, अनंतदास तथा वाजीदास के समय से प्रचलित है। रामानंद स्वामी का समय आजकल 1299 से 1354 तक अथवा 1299 से 1410 तक बतलाया जाता है और इस मत के अनुसार इन का जीवनकाल 14 वीं शताब्दी में ही रखना अथवा अधिक से अधिक उसे 15वीं के प्रथम वा द्वितीय चरण तक बढ़ा ले जाना युक्तिसंगत होगा। संभवतः इसी कारण नागरी-प्रचारिणी सभा काशी के हस्तलिखित हिंदी पुस्तकों का विवरण प्रथम भाग में रैदास जी को स. 1005 (सन् 1448) के लगभग वर्तमान माना है और सन् 1399 में स्थिर किया है। परंतु इस मत की पुष्टि किसी अन्य प्रमाण से भी सिद्ध होती हुई नहीं दीखती।

    रैदास जी का नाम मीराबाई के कुछ पदों में आता है और, कदाचित् उस के भी पहले, धन्ना जाट ने अपने एक पद में इन की चर्चा नामदेव, कबीर और सेन की ही भाँति की है। इन के विषय में धन्ना ने कहा है कि---

    रविदास ढुवंता ढोरनी तितिनि तिआगी माइआ।

    परगटु होआ साध संगि हरिदरसनु पाइआ।।

    अर्थात् नित्यप्रति ढोरों को ढोकर उन का व्यवसाय करने वाले रैदास ने भी अपनी माया त्याग दी और साधुओं के साथ रह कर भगवान् का दर्शन पाया। इस प्रकट है कि धन्ना द्वारा इस पद की रचना के समय तक रैदास जी अपने धंधे से विमुख हो कर संतों में मिल चुके थे अथवा, यदि इस के पहले के दो चरण और बाद के एक चरण में आए हुए क्रमशः नामदेव, कबीर और सेन के वर्णन पर विचार किया जाय तो, संभवत् मर भी चुके थे। स्वयं रैदास जी ने अपने एक पद में, इसी प्रकार नामदेव, कबीर, त्रिलोचन, सदना और सैन तर चुके हुए बतलाया है जिससे उन के उस रचना के निर्माण-समय तक कबीर का मर चुकना विदित हुआ है। रैदास जी इन दोनों प्रमाणों के आधार पर कबीर के अनंतर और धन्ना के प्रथम जीवित रहने वाले कहे जा सकते है, अथवा यह भी हो सकता है कि वे अधिक से अधिक कबीर से छोटे धन्ना से बड़े समसामयिक रहे हो। इन में से धन्ना का समय विदित नहीं और कबीर का निधन-काल कम से कम स. 1505 अथवा सन् 1448 बतलाया जाता है, अतएव रैदास जी का समय पंद्रहवी शताब्दी के द्वितीय या तृतीय चरण में मानना अनुचित नहीं जान पड़ता।

    इस के सिवाय यह प्रसिद्ध है कि मिर्ज़ापुर आदि कई जिलों में पाया जाने वाला साधों का संप्रदाय रैदास जी की ही परपंरा में चला था और इस की स्थापना पहले-पहल किसी वीरभान नामक व्यक्ति ने सन् 1543 ई. में की थी। वीरभान उदयदास के शिष्य थे और उदयदास की गणना रैदास जी के शिष्यों में की जाती है। यह प्रसिद्धि यदि प्रामाणिक आधारों पर चलाई गई है और वीरभान यदि वास्तव में, रैदास जी को अपना दादागुरु समझते रहे हो तो रैदास जी के समय का इस दृष्टि से भी पंद्रहवी शताब्दी के तृतीय चरण अथवा अधिक से चतुर्थ चरण तक चला जाना असंभव नहीं कह जा सकता। इस से अधिक विचार करने के लिए सामग्री का अभाव है।

    रैदास की बानी में संगृहीत—

    रैदास तू काँवच कली, तुझे छीपे कोइ।

    -दोहा, 5

    करम कठिन सोरि जाति कुजाती।

    -पद, 22

    जाति भी ओछी जनम भी ओछा,

    ओछा करम हमारा।

    -पद, 38 87

    हम अपराधी नीच घर जनमे, कुटुँब लोक करै हाँसी रे।

    -पद, 62

    मोर कुचिल जाति कुचिल में बास।

    -पद, 67

    तथा आदिग्रंथ में मिलने वाली---

    मेरी जाति कमीनी पॉति कमीनी,

    ओछा जनमु हमारा।

    -पद, 6

    पंक्तियों से यह भी विदित होता है कि किसी निम्न श्रेणी की अस्पृश्य जाति में जन्में थे जिस का काम-धंधा बहुत निद्य था और इसी कारण बहुधा लोग उन की हँसी तक उडाया करते थे, और साथ ही रैदास की बानी में प्राप्त---

    कह रैदास खलास चमारा।

    -पद, 31

    ऐसी मेरी जाति विख्यात चमार।

    -पद, 42

    नालीदोज़ हनोज़ बेबख़्त कमीन खिजमतगार तुम्हारा।

    -पद, 60

    चरन सरन रैदास चमइया।

    -पद, 81

    एवं, आदिग्रंथ के---

    प्रेमभगति कै कारने कहु रविदास चमार।।

    -पद, 1

    से यहाँ तक स्पष्ट हूँ कि वे अछूत ही नहीं बल्कि चमार नामक अछूत जाति के वंशज थे और, इस बात को ध्यान में रखते हुए, अपने को वे सदा नीच तथा अधिकारहीन तक समझते थे। इसी प्रकार आदिग्रंथ के ही दो स्थल, अर्थात्----

    मेरी जाति कुटवाँ ढलाढोर ढोवंता,

    नितहि बानारसी आसपासा।

    -पद, 1

    तथा

    जाके कुटंब ढेढ सभ ढोर ढोवत

    फिरहि अजहु बंनारसी आसपासा।

    आचार सहित बिप्र करहि डंडउति

    तिन तनै रविदास दासानदासा।

    -पद, 2

    से यह भी पता चल जाता है कि उन की जाति वाले ढेढ लोग मृतक पशुओं को ढो- ढो कर ले जाते थे और उन का व्यवसाय काशीपुरी के आसपास किया करते थे। परंतु स्वयं रैदास जी, कदाचित्, यह कार्य नहीं करते थे। इन का ध्यान विशेषरूप से भगवान् की और आकृष्ट था और ये एक पहुँचे हुए महात्मा समझे जाने लगे थे, जिस कारण, सदाचारी ब्राह्मण तक इन्हें प्रणाम करने में संकोच नहीं करते थे।

    जान पड़ता है रैदास जी अपने जीवन निर्वाह के लिए पहले जूता सीने आदि का स्ववश-कमागत कार्य करते रहे क्योंकि इस विषय की दो चार कथाएँ भी लोकप्रसिद्ध है, परंतु अपने जीवन के अंतिम भाग में अपना पूर्वोक्त व्यवसाय छोड़ कर निरंतर भगवद-भजन में ही लीन रहने लगे और उस श्रेणी तक पहुँचने पर जनसाधारण की दृष्टि में भी वे श्रद्धा से देखे जाने लगे। इन के सच्चे ईश्वरानुराग, वैराग्य, दैन्य, संतोष एवं निस्पृहता के संबंध में अनेक कथाएं प्रचलित है। उदाहरणतः कहा जाता है कि, एक बार इन्हें किसी साधु ने पारस पत्थर ला कर दिया और, इन के औजार से छुला कर उसे सोना बना कर उक्त पत्थर का उपयोग भी इन्हें बतला दिया, किंतु रैदास जी ने उस बहुमूल्य वस्तु को लेने से इंकार कर दिया और साधु के बहुत आग्रह करने पर उसे अपने छप्पर में कही खोस देने के लिए कह दिया। तब से तरह महीने के उपरांत जब साधु फिर लौट कर आया और पत्थर का हाल पूछा तो इन्होंने कहा, देख लीजिए, जहाँ रक्खा था वही गड़ा होगा।

    इन की कुल रचनाएँ अभी तक उपलब्ध नहीं है। पता नहीं इन्होंने किसी स्वतंत्र ग्रंथ की रचना की थी या नहीं, क्योंकि अभी तक इन के जो जो पद्य मिल सके है वे कई संग्रहों में केवल एकत्रित कर लिए गए जान पड़ते है। काशी-नागरी-प्रचारिणी सभा की खोज-संबंधी रिपोर्ट में रैदास की बानी, रैदास के पद एवं रैदास जी की साखी तथा पद का उल्लेख है जो भिन्न भिन्न रचनाओं के संग्रह मात्र ही जान पड़ते है और वही दशा बेलवेडियर प्रेस द्वारा प्रकाशित रैदास जी की बानी तथा सिक्खों के आदि श्री गुरुग्रंथ साहिबजी में भिन्न भिन्न सोलह स्थानों पर पाए जाने वाले पदों की भी है। अभी हाल में प्रकाशित शांतिनिकेतन के विद्वान श्री क्षितिमोहन सेन की बंगला पुस्तक दादू में संतों के बचनों के दो वृहत् संग्रहों का उल्लेख किया है। दोनों में रैदास के पदों के संग्रह मिलते है। इन में से एक संग्रह अजमेर के श्रीयुत चंद्रिकाप्रसाद त्रिपाठी के पास तथा दूसरा जैपूर में श्री शंकरदास के पास बताया जाता है। सुनने में आता है कि हाल में काशी-नागरी-प्रचारिणी सभा के प्रयत्न से इन की रचनाओं का एक ओर अच्छा संग्रह हस्तलिखित रूप में प्राप्त हुआ है। परंतु अभी तक इसे देखने का मुझे सौभाग्य नहीं हुआ। मेरे पास इस समय केवल दो ही ऐसे संग्रह वर्तमान है जिन में से रैदास जी की बानी में कुल मिला कर 6 साखियाँ और 87 पद है और आदि श्री गुरुग्रंथ साहिबजी में केवल 40 पद ही पद दिए गए है। इन दोनों संग्रहों के पद भिन्न भिन्न रागों के अंतर्गत रक्खे गए है। परंतु आदिग्रंथ के सभी 40 पद उक्त बानी वाले संग्रह में नहीं पाए जाते। केवल 23 पदों में ही न्यनाधिक समानता है। पाठभेद बहुत कुछ पाए जाते है।

    (2)

    रैदास जी के पदों में उन के दृढ़ वैराग्य एवं ईश्वरानुराग की भावनाएँ प्रायः सब कहीं लक्षित होती है और इन दोनों की मूल भित्ति उन के आत्मनिरीक्षण तथा सांसारिक विडबनाओं के कटु अनुभव पर खड़ी की गई जान पड़ती है। आडंबर और स्वाभिमान अथवा झूठी बड़ाई से उन्हें बड़ी चिढ है और अपनी दीनता एवं भगवान् के प्रति आत्मीयता के भाव प्रकट करने में वे कभी नहीं चूकते। वे कहते है कि बड़ाई अथवा झूठे अभिमान का रोग संसार में इस प्रकार संक्रामक सा हो गया है कि सद्गुण और सद्भाव वाले व्यक्तियों पर भी अपना प्रभुत्व जमाए बिना नहीं छोड़ता। यहॉ तक कि---

    भगत हुआ तो चढ़ै बढाई जोग करु खग मान

    गुन हूआ तो गुनी जग कह, गुनी आपको आनै।।

    -पद, 4

    अर्थात् भक्तिमार्ग पर अग्रसर होने पर भी अपनी बड़ाई का लोभ नहीं जाता और योग-साधना में लगे होने पर ही संसार में, अपनी योगसिद्धियों की स्वीकृति बिना कराएं काम चलता है। गुणों की प्राप्ति होते ही इस बात की भूख सताने लगती है कि लोग हमें गुणी माने और सदा अपने को गुणीवत् समझने का स्वभाव सा हो जाता है। इसी प्रकार सच्ची भक्ति का मूल आधार, वास्तव में, प्रेम है किंतु संसार में उल्टा ही देखते को मिल रहा है------

    हम जानौ प्रेम प्रेमरस जाने, नौ विधि भगति कराई।

    स्वाँग देखि सब ही जन लटक्यो, फिर यों आन बँधाई।।

    -पद, 5

    अर्थात् मेरे विचार में प्रेम ही सब कुछ है और प्रेमरस का अनुभव होने पर ही नवधा भक्ति की जा सकती है, किंतु लगो स्वॉग को ही मुख वस्तु समझ कर उस के पीछे पड़े हुए है और उसी में सदा फँसे रहा करते है। वास्तव में, इस स्वाँगरचना अथवा दिखाऊपन के अतिरिक्त, एक और भी बात है जो सदा खटका करती है और, जिस के कारण, उन का मन सदा बेचैन सा रहा करता है। वे कहते है-----

    भगति चितऊँ तो मोह दुख व्यापही,

    मोह चितऊँ तो मेरी भगति जाई।

    उभय संदेह मोहि रैन दिन व्यापही,

    दीनदाता करूँ कवन उपाई।।

    -पद, 75

    अर्थात् भक्ति की प्राप्ति के लिए जब प्रयत्न करने लगता हूँ तो बाधा स्वरूप सांसारिक मोह प्रबल हो उठता है, और यदि मोह में रहने की और ध्यान जाता है तो भक्ति की साधना से ही हाथ धोना पड़ता है। दोनों के बीच एक प्रकार का संदेह जागृत होते रहते दिन रात बेचैनी सताती है, और किंकर्तव्यविमूढ़ की दशा में, सिवाय परमेश्वर की शरण जाने के, और कोई भी उपाय नहीं सूझता।

    इसी लिए, अनेक प्रकार के संदेह एवं भ्रम के चक्करों में सदा पड़े रहने के ही कारण, रैदास जी अपने को बहुत दुखी समझा करते है, और एक हतोत्साह मनुष्य की भाति अपने को बार बार उदास रहने वाला अथवा उदासी भी कहा करते है। अपने लिए उदास अथवा उदासी शब्द का व्यवहार उन्होंने अपनी रचनाओं में अनेक स्थलों में किया है, जैसे-----

    अनिक जतन निग्रह कीए,

    टारी टरै भ्रमफांस।

    प्रेम भगति नहीं ऊपजै,

    ताते रविदास उदास।।

    तथा, कह रैदास उदास भयो मन,

    भाजि कहॉ अब जैये।

    इत उत तुम गोविंद गोसाई,

    तुमही माहि समैये।।

    और, छुटै तबहि जब मिलै एक ही, भन रैदास उदासी।।

    -पद, 11

    अर्थात् अनेक प्रयत्न करने पर भी जब भ्रम का बंधन नहीं टूटता और प्रेमभक्ति उत्पन्न हो पाती है तो हताश हो कर उदास होना ही पड़ता है और पता नहीं चलता कि कहाँ भाग निकले। फिर चारो ओर उस एकमात्र सर्वव्यापक परमेश्वर को ही पाकर जी में जी आता है कि किसी प्रकार उसी के भीतर प्रवेश कर जाएँ, क्योंकि यह दृढ़ निश्चय है कि यह दुख, बिना उस के साथ एकीकरण किए, किसी प्रकार छूट नही सकता। यहाँ पर उपरोक्त विचारों का चिंतन करते समय रैदास जी सदा उदास ही दीख पड़ते है और अपना निश्चयात्मक उद्गार भी वे उदासी बन कर ही प्रकट करते है।

    रैदास जी के ईश्वर-प्रेम एवं विनय-संबंधी अनेक पद बहुत ही सुंदर और उत्कृष्ट है। वे भगवान् के साथ अपनी आत्मीयता दर्शाते समय अपने भावों के सौंदर्य एवं कथन-शैली के अनोखेपन-इन दोनो में-अद्वितीय से दीख पड़ते है। उदाहरण के लिए एक पद में वे इस प्रकार कहते है-----

    जउ हम बॉधे मोहफास हम प्रेमबंधनि तुम बांधे।

    अपने छूटन को जतनु करहु हम छुटे तुम आराधे।।

    माधवे जानत हहु जैसी तैसी, अब कहा करहुगे ऐसी।।

    मीनु पकरि फॉकिउ अरु काटिउ रॉधि कीउ बहुबानी।

    खड खड करि भोजनु कीनो तऊ बिसरउ पानी।।

    अर्थात् हे भगवान् यद्यपि मैं मोह-बंधन द्वारा जकड़ा गया हूँ, तौ भी मैं ने तुम्हे भी अपने प्रेम बंधन बाँध रक्खा है। मैं तो तुम से विनय-प्रार्थनादि कर के छूट भी जा सकता हूँ, किंतु तुम्हारे लिए मेरे पाश से मुक्त होना महा कठिन है। तुम्हें इस बात का सब रहस्य ज्ञात है इस लिए तुम्हारी विवशता को भी मैं भली भाँति पहचानता हूँ। तुम जानते हो कि जल में सदा रहने वाली एवं जल को ही अपना सब कुछ समझने वाली मछली को पकड़ कर यदि कोई बाहर लावे और उसे चीर-काट कर अनेक प्रकार के भोजन बनावे तथा उन टुकड़ों को उदरस्थ भी कर ले तौ भी वास्तव में मीन जल का ही मीन ठहरा। उस के लिए अपने जीवनाधार जल का भूल जाना नितांत असंभव है। और ठीक यही दशा मेरे और तुम्हारे संबंध में भी है।

    इस प्रकार एक दूसरा पद भी देखिए---

    जउ तुम गिरिवर तउ हम मोरा।

    जउ तुम चंद हम भये है चकोरा।

    माधवे तुम तोरहु तउ हम नहिं तोरहि।

    तुम सिउ तोरि कवन सिउ जोरहि।।

    जउ तुम दीवरा तउ हम बाती।

    जउ तुम तीरथ तउ हम जाती।।

    साची प्रीति हम तुम सिउ जोरी।

    तुम सिउ जोरि अवर सँगि तोरी।।

    जह जह जाउ तहॉ तोरी सेवा।

    तुम सो ठाकुरु अउरु देवा।।

    अर्थात् तुम्हारा और अपना संबंध में इस प्रकार भी व्यक्त कर सकता हूँ जैसे, यदि तुम एक बड़े पहाड़ हो तो मैं उस पर विचरने वाला मोर हूँ और यदि तुम आकाश में चमकने वाले चंद्रमा हो तो मैं पृथ्वी पर से ही एकटक निहारने वाला चकोर हूँ। हे माधव, तुम यदि अपना संबंध तोड़ भी लो तो मैं उसे कदापि नहीं तोड़ सकता, क्योंकि तुम्हे छोड़ के लिए और कोई भी नहीं जिस से लगन लगा सकूँ। यदि तुम दीपक हो तो उसी के अपार पर एवं स्नेह द्वारा जीवित रह कर प्रकाश करने वाली मैं बत्ती हूँ और यदि तुम पावन तीर्थ हो तो मैं उसी के उद्देश्य में पर्यटन साथ नाता लगा कर औरो से पृथक हो गया हूँ। इस लिए जहाँ कही भी जाऊँ मैं तुम्हारी ही सेवा में विरत रहता हूँ, क्योंकि तुम्हें छोड़ मेरे लिए तो दूसरा कोई मालिक है और देवता है। तुम्ही मेरे प्राणधन और सर्वस्व हो और तुम्हारे सिवाय मैं किसी और को नहीं जानता।

    इसी कारण ऐसे महत्वपूर्ण एवं अनुपम आत्मीय के सत्कारार्थ किसी प्रकार की उचित सामग्री जुटाते समय भी रैदास जी को महान् संकोच होता है। की दृष्टि से, भगवान् की सेवा के समय काम देने योग्य, संसार की उत्तम से उत्तम वस्तु भी नहीं जँचती और वे अंत में इस प्रकार कल्पना करते है---

    दूधु बछरै थनहु विटारिउ।

    फूलु भवरि जलु मीनि बिगारिउ।।

    माई गोविंद पूजा कहालै चरावउ।

    अवरु फूलु अतूपु पावउ।

    मंलागर वेरहे है भुइअंग।

    बिखु अमूतु बसहि इक संगा।

    धूपदीप नइवेदहि बासा।

    कैसे पूज करहि तेरी दासा।।

    तन मन अरपउ पूज चरावउ।

    गुर परसादि निरंजनु पावउ।।

    पूजा अरचा आहि तोरी।

    कहि रविदास कवन गति मोरी।।

    अर्थात् दूध को तो बछडे ने गाय के थन में ही गदा कर दिया और फऊल एवं जल को क्रमशः भ्रमर तथा मीन ने बिगाड दिया। अब किस वस्तु को ले कर गोविंद की अर्चना-पूजा करने बैठूँ। मलयागिरि के चंदन वाले वृक्षों में सदा सर्प ही लिपटे रहते है, विष और अमृत का निवास एक ही स्थल पर है और धूप,दीप, नैवेद्य आदि की दशा प्रायः इसी प्रकार की है, अतएव तुम्हारा सेवक समझ नहीं पाता कि पूजा किस प्रकार की जाय। पूजा का सब से उत्तम ढंग यही जान पड़ता है कि अर्चना करते समय अपने तन, मन आदि को भगवान् के चरणों में अर्पित कर दे और सद्गुरु की कृपा से उस परमात्मा को प्राप्त कर ले। रविदास का कहना है कि वास्तविक पूजा एवं अर्चना का ढंग दूसरा किसी प्रकार से विदित नहीं होता और यह समझना कठिन है कि फिर सद्गति किस प्रकार सरलता-पूर्वक हो सकेगी।

    (3)

    रैदास जी अपने उपास्यदेव की पूजा करते समय उसे स्वर्ग के किसी देवता का स्वरूप देते हुए नहीं जान पड़ते। वे स्पष्ट कहते है कि---

    कह रैदास मैं ताहि को पूजूँ, जाके ठाँव नॉव नहिं होई।।

    -पद, 4

    तथा अलखनाम जाको ठौर कतहूँ, क्यों कहो समुझाई।।

    -पद, 9

    अर्थात् वे ऐसे देव की पूजा करते है जिस का नाम-ग्राम कुछ भी नहीं। कारण यह है कि वह सदा निर्गुण और निराकार है। जैसे---

    अखिल खिलै नहिं का कहि पंडित, कोइ कहै समुझाई।

    अवरन वरन रूप नहि जाके, कहँ लौ लाइ समाई।।

    चंद सूर नहिं रात दिवस नहिं, धरनि अकास भाई।

    करम अकरम नहिं सुभ असुभ नहिं, का कहि देहुं बड़ाई।।

    -पद, 11

    अर्थात् वह अखिल वास्तव में, खिलता अथवा विकसित तक नहीं होता वरन् सदा एक साथ बना रहता है। वह बिना किसी रग का है जिस में रग वा रूप बिल्कुल पाए ही नहीं पाते। वह चंद्रमा, सूर्य, रात, दिन, आकाश, पृथ्वी, कर्म, अकर्म, शुभ अथवा अशुभ इन किसी में से भी नहीं है। उसे एक प्रकार से

    निरजन, निराकार, निरलेपी, निरवीकार, निसासी।

    -पद, 11

    कह सकते है। और, यदि ध्यानपूर्वक विचार किया जाये तो, उस के विषय में

    गुन निर्गुन कहियत नहिं जाके,

    -पद, 11

    तक कहना अनुचित होगा। परंतु फिर भी वह----

    आदि मध्य औसान एक रस, तार बन्धो हो भाई।

    थावर जंगम कीट पतंगा, पूरि रहयो हरिराई।।

    सर्वेश्वर सर्वांगी सब गति करता हरता सोई। इत्यादि।

    -पद, 25

    अर्थात् आदि, मध्य एवं अतः इन तीनों में एक ही प्रकार निर्विकार रहता हुआ सब को स्थिर रखने वाले तार अथवा सब में एक ही साथ पिरोए गए सूत्र की भाँति बना रहता है तथा चर, अचर, कीट, पतंग सब कही और सब में एक ही प्रकार व्याप्त है। वह सब का मालिक, सब को अपने में निहित रखने वाला, सब कही आने जाने वाला तथा सब का रचने एवं महार करने वाला है। वे यह भी कहते है कि...

    अवरन वरन कहै जनि कोई, घट घट व्यापि रहयो हरि सोई।।

    -पद, 37

    अर्थात् मेरे उपास्यदेव हरि को अवरन वरन भी कहने की आवश्यकता नहीं। वह तो घट घट में व्याप रहा है। उस विराट् रूप का---

    चरन पताल सीस असमाना।

    -पद, 57

    है, और,

    नख प्रसाद जाके सुरसरि धारा।

    रोमावली अठारह भारा।।

    चारो वेद जाके सुमिरत सॉसा।

    -पद, 57

    भी, यदि कहना चाहे तो उस निरजनराया के विषय में कह सकते है।

    उक्त सर्वात्मवाद के साथ ही रैदासजी की रचनाओं में हमे शाकर अद्वैतवाद की भी झलक, अनेक स्थलों पर मिलती है। जैसे----

    जब हम होते तब तू नाही, अब तूही मैं नाही।

    अनल अगम जैसे लहरि मइ उदधि जल केवल जल माहीं।।

    माधवे किआ कहीए भ्रमु ऐसा,

    जैसा मानीऐ होइ तैसा।।

    नरपति ऐकु सिघासनि सोइया,

    सपने भैया भिखारी।

    अछत राज बिछुरत दुखु पाइया,

    सो गति भई हमारी।।

    राज भुइअंग प्रसंग जैसे हहि,

    अब कछु मरमु जताइआ।

    अनिक कटक जैसे भूलि परे अब,

    कहते कहनु आइआ।। इत्यादि।

    अर्थात् जब तक मैं का भाव है तब तक, द्वैत की गंध रहने के कारण, तू अर्थात् तुम्हारा वास्तविक रूप मैं जान ही नहीं सकता और जब आत्मज्ञान हो जाता है तो फिर, मैं से अलग अस्तित्व दूर हो कर सर्वत्र तू ही तू रह जाता है। जैसे सर्वथा जलमय समुद्र में उठने वाली प्रचंड बडवानल की ऊँची ऊँची लहरे तक, अतः में, जल से भिन्न कोई दूसरी वस्तु नहीं है। अलग से देखने पर भिन्नता का भ्रम हो जाता है और वास्तविकता का ज्ञान नहीं हो पाता। इसी प्रकार जैसे कोई राजा अपने सिहांसन पर ही सो जाय और स्वप्न देखने लगे कि मैं नितांत धनहीन हो गया और, वास्तव मे, सारा राज्य रहते हुए भी स्वप्न के कारण, उसे भ्रमवश दुखी होना पड़े उसी प्रकार मेरी भी दुर्दशा हो गई है। अब रहस्य ऐसा जान पड़ता है कि मैं रज्जु और सर्प तथा भिन्न भिन्न सोने के गरने और सोने की भिन्नता के भ्रम में पड़ने के समान भ्रांतिवश हो गया था। सब कुछ कहना चाहने पर भी कहते नहीं बनता।

    इसी प्रकार,

    माधो भरम कैसेहु बिलाई, ताते द्वैत दरसे आई।।

    कनक कुंडल सूत पट जुदा, रजु भुअंग भ्रम जैसा।

    जल तरंग पाहन प्रतिमा ज्यो, ब्रह्म जीव द्वति ऐसा।।

    विमल एक रस उपजै विनसै, उदय अस्त दोउ नाहीं।

    विगताविगत घटँ नहिं कबहूँ, बसत बसै सब माहीं।।

    निश्चल निराकार अज अनुपम, निरभयगति गोविंदा।

    अगम अगोचर अच्छर अतरक, निरगुन अंत अनंदा।।

    सदा अतीत ज्ञानघट वर्जित, निरविकार अविनासी।। इत्यादि।।

    -पद, 53

    अर्थात् ब्रह्म और जीव दोनों, वास्तव में, एक ही है, किंतु भ्रमवश दोनों के नीचे हमें द्वैत का बोध होने लगता है। यह भ्रम उसी प्रकार का है जैसे, सोना और उस से बने हुए कुंडल नाम गहने, सूत और उस से बुने गए वस्त्र, रस्सी और उसे धोखे में मान ले गए हुए साँप, पानी और उस पर उठने वाली लहर तथा पत्थर और उस से बनी हुई मूर्ति को, एक मानने में हुआ करता है। परमात्मा सदा मलरहित, एक सा रहने वाला, अजन्मा, अविनाशी और अनंत है। वह कभी भी घटता बढ़ता नहीं तौं भी सब में व्याप्त रहा करता है। वह निरंतर एक स्थान पर स्थिर रहने वाला, रूपरहित, बेजोड और अबाधित गति वाला है। उस के यहाँ तक किसी की पहुँच नहीं, वह इंद्रियों द्वारा अनुभव में सकता है। वह कल्पना के भी परे है और आनंदमय एवं किसी भी प्रकार के विकार से रहित है। वही एक सत्य है, दूसरा कुछ भी नहीं। दूसरी सभी वस्तुएँ नितांत मिथ्या है।

    इसी लिए अपने अंतिम सिद्धांत की भाँति एक स्थल पर वे कहते है कि----

    गाइ गाइ अब का कहि गाऊँ।

    गावनहार को निकट बताऊँ।।

    जब लग है या तन की आसा, तब लग करै पुकारा।

    जब मन मिल्यौ आस नहिं तन की, तब को गावनहारा।।

    जब लग नदी समुद समावै, तब लग बढ़ै हँकारा।

    जब मन मिल्यौ रामसागर सों, तब यह मिटी पुकारा।।

    जब लग भगत मुकति की आसा, परम तत्व सुनि गावै।

    जहँ जहँ आस धरत है यह मन, तहँ तहँ कछू पावै।।

    छाडै आस निरास परम पद, तब सुख सति कर होई।

    कह रैदास जासों और करत है, परम तत्व अब सोई।।

    -पद, 3

    अर्थात् अब मुझे गाने बजाने की कोई आवश्यकता नहीं, क्योंकि जब तक इस मानवजीवन विश्वास है तभी तक इन बातों की ओर ध्यान भी जाता है, जब चारों ओर का लगाव छोड़ कर आत्मसमर्पण कर दिया और दो का एक हो गया तो फिर गाने वाले का अस्तित्व ही कहाँ रह जाता है। उदाहरण के लिए, जब तक नदी समुद्र में मिल नहीं जाती तब तक हुँकार करती हुई आगे बढ़ती जाती है, किंतु समुद्र से भेट होते ही निस्तब्ध हो कर हिलमिल जाती हैं। इसी प्रकार जब तक मनुष्य को भक्ति अथवा मुक्ती की आशा बँधी रहती है तब तक वह परम तत्वादि की चर्चा किया करता है और अनेक ओर से आशान्वित होते रहने पर भी उसे कुछ प्राप्त नहीं होता, परंतु ज्यों ही उस के बाहरी बंधन टूटे कि वह परम-तत्व के सुख का अनुभव करने लगता है। ओर स्वयं परमानंद-स्वरूप बन जाता है।

    अतएव,

    बिनु देखे उपजै नहिं आसा। जो दीसै सो होइ बिनासा।।

    .....................................................................

    परचै रामु रवै जउ कोई। पारसु परसै दुविधा होई।।

    ............................................................................

    फल कारन फूली बनराइ। फलु लागा तब फूलु बिलाइ।।

    गिआनै कारन करम अभिआसु। गिआनु भइआ तह करमह नासु।।

    घृत कारन दधि मथै लइआन। जीवत मुकत सदा निरवान।।

    कहि रविदास परम वैराग। रिदैरामु कीन जपिसि अभाग।।

    अर्थात् बिना प्रत्यक्ष किए विश्वास नहीं जमता और सदा दृष्टि में आने वाली वस्तुएं नाशमान सिद्ध हो जाती है। परंतु ज्यों ही परमतत्व का परिचय हो गया कि, पारस के संसर्ग से खरे सोने के आविर्भाव के समान, द्वैत बुद्धि सर्वथा नष्ट हो जाती है। उद्देश्य की सिद्धि प्राप्त होते ही समझ में जाता है कि जिस प्रकार वन के पुष्पित होने का वास्तविक रहस्य उस के फल आने की कामना में ही अंतर्हित रहता है और फलों के लगते ही फूलों का आप से आप नाश हो जाता है उसी प्रकार कर्मों का अभ्यास केवल ज्ञान प्राप्ति की ही दृष्टि से किया जाता है अतएव आत्मज्ञान के होते ही कर्मों का स्वयं नष्ट हो जाना स्वाभाविक है। घी निकालने के ही उद्देश्य से दधि को बार बार विलोना पड़ता है और तत्वज्ञान होते ही सब कर्म गौण हो जाते है। इस कारण, जीवन्मुक्त सदा असक्त रह कर ही कार्य किया करते हैं और यही रैदास जी के परम वैराग का सिद्धांत है जिस के अनुसार वे, अपने हृदय में ही निवास करने वाले राम का जप करने के विषय में, उपदेश देते है।

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