मयार समाअ बतदरीज क़व्वाली के अहद-ए-ईजाद तक
रोचक तथ्य
کتاب ’’قوالی امیر خسرو سے شکیلا بانو تک‘‘ سے ماخوذ۔
समा’अ दूसरी सदी हिज्री की ईजाद है। हज़रत जुनैद बग़्दादी ने उसे तीसरी सदी हिज्री में इख़्तियार किया। अवारिफ़-अल-म’आरिफ़ में दर्ज है कि
‘’कहते हैं हज़रत जुनैद बग़्दादी ने समा’अ सुनना छोड़ दिया था। लोगों ने कहा आप पहले समा’अ सुनते थे। आपने फ़रमाया किसके साथ? वो कहने लगे आप अपने लिए सुनते थे। आपने फ़रमाया किन लोगों से? आपने ये सवालात इसलिए किए कि मशाइख़ अपने ही हम-पल्ला लोगों के साथ बैठ कर अपने जैसे लोगों से समा’अ सुना करते थे। लिहाज़ा जब ऐसी रुहानी सोहबत ख़त्म हो जाये तो समा’अ भी तर्क कर दिया जाता है।
इस हवाला से ये बात साबित होती है कि हज़रत जुनैद तीसरी सदी हिज्री ही के शुरका-ए-बज़्म-ए-समा’अ के मे’यार से ग़ैर-मुतमइन थे। फिर हज़रत इमाम ग़ज़ाली ने एक मे’यार क़ाइम करने की ग़रज़ से पाँचवीं सदी हिज्री की अपनी तसानीफ़ इह्या-उल-उलूम और कीमिया-ए-स’आदत में समाअ के आदाब-ओ-मवाने मुरत्तब फ़रमाए। उस के एक सौ साल बा’द शैख़-उश-शुयूख़ शैख़ख शहाबउद्दीन सुह्रवर्दी ने छट्टी सदी हिज्री की अपनी तस्नीफ़ अवारिफ़-अल मआ’रिफ़ में अपने ‘अह्द के समाअ के मे’यार पर जो तब्सिरा फ़रमाया वो हसब-ए-ज़ैल है। आप फ़रमाते हैं कि
समा’अ के ज़रीया बहुत फ़ित्ने फैल गए हैं, इसकी मा’सूमियत बाक़ी नहीं रही बल्कि लोगों में इसका शौक़ इस क़दर बढ़ गया है कि उन्होंने नेक ‘अमल कम कर दिए हैं और उनकी हालतें इस क़दर बिगड़ गई हैं कि वो समाअ’ के लिए बह कस्रत से जम्अ होने लगते हैं। यहाँ तक कि ऐसे इज्तिमा’आत के मौक़ा’ पर खाने भी पकवाए जाते हैं। अब मुख़्लिस दरवेशों की तरह महज़ समा’अ से दिली रग़बत की बिना पर ये इज्तिमा मुंअक़िद नहीं होता बल्कि नफ़्सानी ख़्वाहिश और सैर तमाशा के लिए लोग इकट्ठे होते हैं। नतीजा ये हुआ कि मुरीदीन की रुहानी तरक़्क़ी मुन्क़ते’ हो गई है। इस तरह न सिर्फ़ उनका वक़्त ज़ाए’ होता है बल्कि लुत्फ़-ए-‘इबादत भी हासिल नहीं होता ।मौजूदा ज़माना में इसके इज्तिमा’आत का मक़्सद महज़ नफ़्सानी ख़्वाहिशात की तक्मील और ऐश-ओ-इश्रत से लुत्फ़-अंदोज़ी हो गया है, ऐसा इज्तिमा अह्ल-ए-बातिन के नज़दीक नाजाइज़ है।
ये है शैख़ शहाबउद्दीन सुह्रवर्दी का इर्शाद उनके ख़ुद के ‘अह्द के समा’अ के बारे में। जब उस ‘अह्द में समा’अ का ये मेयार रह गया था तो सातवीं सदी हिज्री में क़व्वाली के ‘अह्द-ए-ईजाद तक उसका क्या रंग हो गया होगा। और जब समा’अ में इतना फ़र्क़ पैदा हो गया था तो फ़न्न-ए-क़व्वाली जैसी नई ईजाद समा’अ से किस क़दर मुख़्तलिफ़ रही होगी। आज इस क़व्वाली के बारे में जो लोगों का मज़हबी तसव्वुर है क्या वो क़व्वाली वाक़ई इस तसव्वुर पर पूरी उतरती होगी जो तसव्वुर समा’अ के बारे में सबका है।
अब एक सवाल यही रह जाता है कि जब ये क़व्वाली समा’अ से मुख़्तलिफ़ थी तो वो अपने ‘अह्द की सबसे बड़ी ख़ानक़ाह में कैसे जगह पा सकी? इसका जवाब आगे के औराक़ में किसी न किसी ‘उन्वान के तहत कई जगह मौजूद है।
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