क़व्वाली का ‘अह्द-ए-ईजाद और मक़्सद-ए-ईजाद
रोचक तथ्य
کتاب ’’قوالی امیر خسرو سے شکیلا بانو تک‘‘ سے ماخوذ۔
क़व्वाली की ईजाद अमीर ख़ुसरो के ‘अह्द-ए-हयात 1253 ता 1325 के ठीक दरमियान का ‘अह्द है, जब कि हिन्दोस्तान पर खिल्जी ख़ानदान का इक़्तिदार था।
अमीर ख़ुसरो की ख़ामोशी के बा’इस क़व्वाली के मक़्सद-ए-ईजाद की बह्स बेहद पेचीदा हो गई। वो एक सच्चे फ़नकार होने के साथ साथ मज़हब-दोस्त भी थे, इसलिए उनकी ईजाद-कर्दा क़व्वाली में फ़न्नी ख़ूबियों के साथ साथ मज़हबी रुजहानात का महसूस किया जाना एक इम्कानी अम्र था, लिहाज़ा क़व्वाली को अक्सरियत ने एक मज़हबी चीज़ ही जाना लेकिन ख़ुसरो की तमाम तहरीकात-ए-ईजादात-ओ-इक़्दामात की रौशनी में जाइज़ा लें तो क़व्वाली मज़हब से हट कर एक ख़ालिस फ़न्नी चीज़ साबित हो जाती है और फ़न का मक़्सद हमेशा इन्सानी हम-आहंगी होता है जिसे एक मुल्क क़ौमी यक-जहती कहता है और सारी दुनिया ‘आलमी हम-आहंगी। ख़ुसरो एक बे-नज़ीर मुहिब्ब-ए-वतन और एक सच्चे-ओ-बा-कमाल फ़नकार थे। वो फ़न की इस बुनियादी मक़्सदियत को कभी फ़रामोश नहीं कर सकते। यही वो नुक्ता-ए-बुनियाद है जिसकी बिना पर ये कहा जा सकता है कि क़व्वाली का मक़्सद-ए-ईजाद क़ौमी यक-जहती के जज़्बात का है।
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