क़व्वाली के अहद-ए-ईजाद का अहम समाजी तक़ाज़ा
रोचक तथ्य
’’قوالی امیر خسرو سے شکیلا بانو تک‘‘ سے ماخوذ۔
क़व्वाली के अहद-ए-ईजाद में हिन्दोस्तान मुख़्तलिफ़ सूबों, रियास्तों और इलाक़ों में तक़सीम था, हर ख़ित्ता में मुख़्तलिफ़ लोग आबाद थे, ख़ुद दिल्ली में राजधानी भी हिंदूओं और मुसमानों वग़ैरा की मुख़्तलिफ़ तहज़ीबों, ज़बानों, अक़ाइद और रिवायतों के हल्क़ों में बटी हुई थी, हालाँकि ये लोग जंग, जश्न और ईद-ओ-त्यौहार के मौक़ों पर ब-हर सूरत एक क़ौम की हैसियत से जम्अ हो जाते थे, उन सबने मिलकर जंगें भी लड़ीं , हारे भी, जीते भी, मातम भी किए, जश्न भी मनाए, ईद-ओ-त्यौहार की बहारें भी लूटीं लेकिन इसके बावुजूद म’आशी मसाई, तहज़ीबी और समाजी ज़रूरीयात के पेश-ए-नज़र शु’ऊरी या ग़ैर-शुऊरी तौर पर सारी क़ौम एक ऐसी यकजहती की आर्ज़ूमंद थी जिसकी हक़ीक़तन हर क़ौम को ज़रूरत होती है, इस ज़रूरत की तक्मील के लिए क़ौम के दानिश्वर हर-आन इन बहानों, इन उन्वानों , इन मराकिज़ और उन वसाइल की खोज में लगे रहते थे जिनके ज़रीया बार-बार सब के मिल बैठने के मवाक़े’ फ़राहम हों, ऐसे ही मवाक़े’ इस ‘अह्द का सबसे बड़ा समाजी तक़ाज़ा थे और उन्हीं तक़ाज़ों के दरमियान क़व्वाली की बिना पड़ी, इस वक़्त पेश तहरीर एक ज़ैली सुर्ख़ी है लेकिन हमारा अस्ल मौज़ू चूँकि क़व्वाली है, इसलिए यहाँ क़व्वाली से मुतअल्लिक़ा एक आम ग़लत-फ़हमी का इज़ाला बे-महल न होगा कि इस ‘अह्द में इस्लाम को किसी नई तर्ज़-ए-इबादत की ज़रूरत का सामना क़त’अन न था बल्कि हक़ बात तो ये है कि इस्लाम में क़ुर्आन और हदीस से हट कर किसी नए तरीक़ा–ए-याद-ए-इलाही की ईजाद-ओ-इख़्तिरा’अ की इजाज़त ही नहीं है, इस हवाला का मक़्सद सिर्फ़ ये वाज़ेह करना है कि क़व्वाली का ‘अहद-ए-ईजाद मुसलमानों के किसी ने तरीक़ा-ए-‘इबादत का मुतक़ाज़ी न था, उस वक़्त तक इस्लाम को मुकम्मल हुए सात सौ साल बीत चुके थे और समाजी हैसियत से इस ‘अह्द का सबसे बड़ा तक़ाज़ा सिर्फ़ ये था कि कोई न कोई ऐसी सबील निकाली जाये कि तमाम मज़ाहिब के मानने वाले मुस्तक़िल्लन मिल बैठने के ‘आदी हो जाएँ फिर एक-बार ये बात दोहराने में तकल्लुफ़ नहीं कि इसी तक़ाज़-ए-हम-आहंगी की गूँज में क़व्वाली की बिना पड़ी।
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