क़व्वाली के अलमिये
रोचक तथ्य
کتاب ’’قوالی امیر خسرو سے شکیلا بانو تک‘‘ سے ماخوذ۔
हादिसा वुक़ूअ’-पज़ीर होने के बा’द ''अलमिया' या ''तरबिया' बन जाता है। ख़ुश-गवार हादिसे की पैदावार ''तरबिया' और ना-ख़ुश-गवार की ''अलमिया' होती है। हिन्दी अस्नाफ़-ए-मूसीक़ी में कई अस्नाफ़ मुख़्तलिफ़ हादिसों की बिना पर उ'रूज पाए और ज़वाल भी। क़व्वाली फ़िलहाल मुख़्तलिफ़ ना-ख़ुश-गवार हादिसों से गुज़र रही है, इसलिए मैं इन हादिसों को क़व्वाली के अलमिये ही कहूँगा।
क़व्वाली का पहला अलमिया : क़व्वाली एक सिन्फ़-ए-मूसीक़ी होने के बा-वुजूद शाइ’री के ज़ेर-ए-तसल्लुत रही, लिहाज़ा इस तसल्लुत की बिना पर माहिरीन-ए-मूसीक़ी ने उसे आग़ोश-ए-ख़ुलूस से परे रखा और सिन्फ़-ए-मूसीक़ी होने के जुर्म पर परस्तरान-ए-शाइ’री ने इससे सर्द-मेहरी बरती। इस तरह किसी ने भी इस पर ज़्यादा तवज्जोह न दी चुनांचे अमीर खुसरो की ये ईजाद घर की रही न घाट की, आज मूसीक़ी और शाइ’री की तमाम अस्नाफ़ पर किताबों के अंबार मौजूद हैं लेकिन क़व्वाली वो बद-नसीब सिन्फ़ है जिस पर बा-ज़ाबता फ़न्नी ‘एतबार से लिखी हुई किताबों का फ़ुक़्दान है। यही फ़ुक़्दान क़व्वाली का सबसे बड़ा और पहला अलमिया है, फ़न की क्लासिकी सूरत-गरी में किताबों का बहुत बड़ा रोल होता है मगर क़व्वाली इस सहारे से महरूम है।
क़व्वाली का दूसरा अलमिया : क़व्वाली का दूसरा मगर अहम अलमिया ये है कि ये तर्ज़ इब्तिदा ही से मुसलमानों की शरई’ बह्स का शिकार हो गई, जिसके बाइ’स फ़न्नी हैसियत से इसका जाइज़ा मुसलमानों के इस ख़ास दौर में भी न लिया जा सका, जबकि हिन्दोस्तान तमाम अस्नाफ़-ए-मूसीक़ी की तहक़ीक़-ओ-तौसीअ’ में मसरूफ़ था।
क़व्वाली का तीसरा अलमिया : क़व्वाली का ये अलमिया ये है कि ये तर्ज़ सीधे साधे रागों और आम-पसंद मज़ामीन के बाइ’स मूसीक़ी से कम वाक़फ़ियत रखने वाले और कम पढ़े लिखे लोगों के हत्थे चढ़ गई और उनकी जाहिलाना और ग़ैर-मुहज़्ज़ब हरकतों के बाइ’स ब-जुज़ सूफ़ियों के दीगर तमाम ता'लीम-याफ़्ता और तरक़्क़ी-पसंद हल्क़ों में बे-तौक़ीर हो गई। यही सबब है कि आज न कोई बड़ा गवय्या क़व्वाली गाने पर आमादा होता है और न कोई बड़ा शाइ’र अपनी तख़्लीक़ को क़व्वाली की ज़रूरियात के मुताबिक़ ढालने की दरख़्वास्त क़ुबूल करता है।
क़व्वाली पर अगर फ़न्नी ‘एतबार से मा’लूमाती किताबें लिखी जातीं, अगर ये फ़न शरई’ बह्स से आज़ाद होता, अगर इसे ता'लीम-याफ़्ता और मुकम्मल तौर पर मूसीक़ी-शनास अफ़राद अपनाते तो ये फ़न इतना वसीअ’ और दिल-कश था कि अवामी मक़बूलियत की जिस मंज़िल पर आज पहुँचा है वो मंज़िल आज से सैकड़ों साल पहले गुज़र चुकी होती।
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