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क़व्वाली के मज़ामीन

अकमल हैदराबादी

क़व्वाली के मज़ामीन

अकमल हैदराबादी

MORE BYअकमल हैदराबादी

    रोचक तथ्य

    ’’قوالی امیر خسرو سے شکیلا بانو تک‘‘ سے ماخوذ۔

    क़व्वाली के अहम-तरीन अज्ज़ा-ए-मुरक्कब तीन हैं। मज़ामीन, मौसीक़ी और ज़बान। इस मुरक्कब में क़ौमी यक-जहती की ख़ुसूसियत की खोज करने के लिए इन तीनों का अलग अलग जाइज़ा लेना ज़रूरी है। इन तीनों अहम-तरीन अज्ज़ा में चूँकि मज़ामीन की अहमियत सबसे ज़्यादा है, इसलिए पहले मज़ामीन ही पर ग़ौर करना होगा क़व्वाली के मज़ामीन की इब्तिदा नशरी अक़्वाल से हुई, जो सिर्फ़ मुस्लिम पेशवाओं ही के इर्शादात पर मुश्तमिल थे। ये बात भी पाया-ए-तहक़ीक़ को पहुंच चुकी है कि क़व्वाली में सबसे पहले सरवर-ए-काइनात मुहम्मद सल्लल्लाह अलैहि वसल्लम ही के अक़्वाल मुबारक बाँधे गए। उनमें भी जो क़ौल क़व्वाली की हद तक सबसे ज़्यादा मशहूर-ओ-मक़बूल हुआ और क़व्वाली में सबसे पहले इस्तिमाल किया गया वो हसब-ए-ज़ैल है।

    मन कुन्तु मौलाहु फ़-अलीउन मौलाहु

    हालाँकि इस क़ौल का क़ौल-ए-रसूल होना हदीस से साबित नहीं होता लेकिन ये क़ौल हज़रत ‘अली मुर्तज़ा की बहुत बड़ी फ़ज़ीलत के तौर पर इस्तिमाल होता रहा है, ये क़ौल अगरचे कि मौज़ू-ए-बह्स रहा लेकिन मुतअद्दिद ऐसे अक़्वाल भी क़व्वाली में ईब्तिदाअन इस्तिमाल किए गए जिनके अक़्वाल-ए-रसूल होने का सुबूत हदीस में मौजूद है।

    मौसीक़ी की ज़रूरत के पेश-ए-नज़र ख़ुसरो ने क़व्वाली के नस्री अक़्वाल में ''तराना' के बोल भी जोड़ लिए थे, मसलन:

    मन कुन्तु मौलाहु फ़-अलीउन मौलाहु

    दर-ए-दिल दर-ए-दिल दरदानी

    दर क़ौम, ता नाना नाना, ता नानाना रे

    तानाना , ताना ना नारे

    दर तूम, ता नाना नाना तानाना नारे

    यल्ला ली यल्ला ली यल्ला अल्लाह, मन कंत मौला

    बा’ज़ जगह यही क़ौल ''तराना' के हसब-ए-ज़ैल बोलों के साथ नक़ल हुआ है

    मन कुन्तु मौलाहु फ़-अलीउन मौलाहु

    दर तूमता नाना नाना, ताना ना नारे

    अलाली आला ले-ए-आ लिली अल्लाह यल्ले अलाली अलाली या लिले कुंतु मोला

    इन दोनों में ज़्यादा चाव पहली सूरत ही में मिलता है लेकिन इस बात का सही अंदाज़ा किसी मौसीक़ी- दाँ ही की ज़बान से सुनकर हो सकता है मैंने दोनों सूरतों में ये क़ौल सुना है, मुझे पहली सूरत ही जाज़िब लगी।

    इस में शक नहीं कि क़व्वाली की इब्तिदा सरवर-ए-काइनात के अक़्वाल-ए-मुबारक से हुई लेकिन अमीर ख़ुसरो ने क़व्वाली सिर्फ़ मुसलमानों ही के लिए नहीं बनाई थी, उसका सुबूत ये है कि उन्होंने बहुत जल्द क़व्वाली को मज़हबी पेशवाओं के अक़्वाल से वुस्अत देकर तसव्वुफ़ की तरफ़ मोड़ दिया, जिसमें हिंदू मुस्लिम की कोई क़ैद थी।

    क़व्वाली का ‘अह्द-ए-ईजाद वो ‘अह्द है जब कि मौसीक़ी का इस्तिमाल मुसलमानों में सख़्त मौज़ू-ए- बह्स बना हुआ था। मुसलमानों की अक्सरियत उसे नाजायज़ मानती थी लेकिन ख़ुसरो जो मिसाली मुहिब्ब-ए-वतन और शैदा-ए-क़ौम होने के साथ साथ एक ‘अज़ीम मूसीक़ार भी थे वो मौसीक़ी की क़ुव्वत-ए-वहदानियत से ख़ूब वाक़िफ़ थे, वो एक सच्चे फ़नकार होने के नाते ये नहीं चाहते थे कि मुसलमान मौसीक़ी की इस हमागीर ख़ुसूसियत से महरूम रह जाएँ, चुनांचे मुसलमानों की अक्सरियत को मौसीक़ी से क़रीब लाने के लिए उन्होंने मौसीक़ी में सरवर-ए-कायनात के अक़्वाल जड़ दिए उनका ये कारनामा अगरचे उनकी तबईयत के मज़हबी मैलान की देन क़रार दिया गया लेकिन ख़ुसरो ने अपनी तमाम-तर तस्नीफ़ात और ईजादात में मुख़्तलिफ़ मज़ाहिब की हम-आहंगी की मक़्सदीयत को पेश-ए-नज़र रखा है और उनके हर कारनामा में उनकी हुब्बुल-वतनी और क़ौम-परस्ती ब-दर्जा-ए-अतम मौजूद रही, चुनांचे क़व्वाली को महज़ इस ख़्याल से कि वो ईब्तिदाअन ख़ानक़ाहों में पली ये कह देना कि ये किसी मज़हबी जज़्बा के तहत ईजाद की गई सरासर तंग-नज़री और ख़ुसरो के फ़ित्री रुहजान से ना-वाक़फ़ियत का ऐलान है ख़ुसरो की हयात, उनके जज़्बात और उनके एहसासात के ब-ग़ौर मुतालआ के बाद यही राय क़ाइम की जा सकती है कि उन्होंने क़व्वाली की इब्तिदा ''अक़्वाल-ए-रसूल' से महज़ इस ख़्याल के तहत की थी कि मुसलमान इन अक़्वाल के तक़द्दुस के ज़ेरे-ए-असर मौसीक़ी की ग़ैर-शरई हैसियत को गवारा कर लें, क्योंकि वो ख़ुद भी मौसीक़ी की इस हैसियत को गवारा करते थे, चुनांचे हुआ भी यही मुसलमान अक़्वाल-ए-रसूल के तक़द्दुस में ऐसे खोए कि उसकी ‘अक़ीदत के आगे मौसीक़ी की ग़ैर-शरई हैसियत मांद पड़ गई और मुसलमान जौक़ दर जौक़ क़व्वाली की महफ़िलों में शरीक होने लगे क़व्वाली की ईजाद से पहले मुसलमानों की अक्सरियत मौसीक़ी से इस क़दर क़रीब थी। क़व्वाली मौसीक़ी का वो बाब-ए-दाख़िला है जिससे मुसलमानों की अक्सरियत दाख़िल हुई।

    ख़ुसरो ने क़व्वाली के ज़रीया मुसलमानों की अक्सरियत को मौसीक़ी से क़रीब तो कर लिया लेकिन उनकी फ़न्नी महारत और उनकी क़ौम-परस्ती के लिए ये कोई कारनामा था उनके नज़दीक कारनामा तो ये था कि किसी किसी तरह हिंदूओं और मुसलमानों को एक मर्कज़ पर इंतिहाई हम-मिज़ाजी के साथ जम्अ कर दें चुनांचे मुसलमानों के क़व्वाली का आदी हो जाने के बाद ख़ुसरो ने इस फ़न में अक़्वाल-ए-रसूल की जगह तसव्वुफ़ के मज़ामीन समो दिए।

    तसव्वुफ़ के मज़ामीन वेदांत भगती तहरीक और सूफ़ी ता’लीमात की तब्लीग़ और तश्हीर का ऐसा सर चशमा हैं जिनमें ज़ात पात, मज़हब और ऊँच नीच की कोई तफ़रीक़ नहीं यहाँ सब इसी एक ज़ात के परस्तार हैं जिसने सारी दुनिया की तख़्लीक़ की है यहाँ मज़हबी हम-आहंगी, तहज़ीबी मेल मिलाप, रवादारी और इन्सान-दोस्ती के ऐसे ऐसे अस्बाक़ हैं जिनका हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई कोई मुन्किर नहीं हो सकता। तसव्वुफ़ की इसी ख़ूबी के बाइस बे-शुमार हिंदू भी मुस्लिम सूफ़िया से वाबस्ता रहे।

    हिंदू मज़हब में मौसीक़ी जुज़्व-ए-इबादत है। चुनांचे मौसीक़ी की ललक में हिंदू क़व्वाली से क़रीब होते गीए और मज़ामीन की फ़ज़ीलत के पेश-ए-नज़र मुसलमान उसके हल्क़ा-ब-गोश होने लगे और जब इस में तसव्वुफ़ के मज़ामीन समा गए तो हिंदूओं ने उसे ऐसे अपना लिया कि ये मुसलमानों ही की तरह हिंदूओं की भी रुहानी तस्कीन का सामान बन गई

    क़व्वाली की महफ़िलों में मुख़्तलिफ़ मज़ाहिब के मानने वालों की हम-आहंगी क़व्वाली के मज़ामीन ही की ब-दौलत है और उन मज़ामीन का इंतिख़ाब अलम-बरदार-ए-क़ौमी यकजहती अमीर ख़ुसरो ही की दूर-अंदेशी का करिश्मा है। अगर ख़ुसरो ने इन मज़ामीन के बर-महल इंतिख़ाब में अपनी दूर-अंदेशी और कमाल-ए-ज़हानत से काम लिया होता तो क़व्वाली आज इतनी वसी’अ होती।

    तसव्वुफ़ के साथ ही क़व्वाली में ‘अरबी नस्र की जगह फ़ारसी नज़्म ने सँभाल ली, यहाँ आकर क़व्वाली कुछ और पुर-कशिश हो गई, क्यों कि क़व्वाली का यही वो संगम था जहाँ मौसीक़ी से शा’इरी बग़ल-गीर हो रही थी।

    शा’इरी की बुनियाद भी मज़ामीन ही पर है, लिहाज़ा क़व्वाली की हद तक शा’इरी को भी मज़ामीन ही के ज़ेर-ए-‘उन्वान शुमार करना चाहिए, शा’इरी को फ़ुनून-ए-लतीफ़ा में अहम मक़ाम हासिल है लेकिन ‘आला शा’इरी उसी शा’इर की तख़्लीक़ पा सकती है जो शाइर होने से पहले एक सच्चा इन्सान हो और सच्चे इन्सान की अव्वलीन ख़ुसूसियत ये है कि वो एक दर्द-मंद दिल का मालिक और इन्सान दोस्त हो जो शा’इर सच्चा इन्सान हो उसकी शा’इरी कभी भी सच्चाई, रवादारी और इन्सान-दोस्ती जैसे ‘आला जज़्बात की तर्जुमान नहीं हो सकती और जिस शा’इरी में इन जज़्बात का फ़ुक़दान हो वो कभी टआला शगयरी की ताटरीफ़ में सकती है और उसको दुनिया याद रखती है, कोई चीज़ अगर मौज़ू-ए-बह्स हो तो उसकी ‘आला अक़्दार ही की बुनियाद पर फ़ैसला दिया जा सकता है कि उस की क़तई हैसियत किया है, चुनांचे शा’इरी ने सिर्फ़ फ़िर्क़ों, तबक़ों और जमा’अतों को जोड़ कर एक क़ौम किया है बल्कि उसने बैन-अल-अक़वामी वहदत के जज़्बात को भी फ़रोग़ दिया है, उसने सारे ‘आलम में अपने मज़ामीन से इन्सान-दोस्ती का पैग़ाम ‘आम किया है ख़ुसरो की ईजाद कर्दा क़व्वाली का ख़मीर ही वुस्अत-पज़ीर था, चुनांचे क़व्वाली ने तसव्वुफ़ को भी अपने लिए नाकाफ़ी पाया और मज़ीद वुस्अत की मुतक़ाज़ी हुई लेकिन ख़ानक़ाह का माहौल मज़ीद वुस्अत-ओ-फैलाओ के ख़िलाफ़ था, लिहाज़ा ये वो दोशीज़ा जब शबाब को पहुंची तो ख़ानक़ाह की दीवार फाँद गई ख़ानक़ाह के बाहर भी 'अवाम की एक कसीर ताटदाद उसके जल्वा-ए-बे-बाक की मुश्ताक़ थी। इस खुले माहौल में आकर इस दोशीज़ा ने अपने आपको ‘इश्क़िया मज़ामीन से आरास्ता किया और आईन-ए-मौसीक़ी से दाद पा कर जब ‘अवाम के आगे रूनुमाई की तो उसके अतराफ़ चाहने वालों का इज़्दिहाम लग गया। अब क़व्वाली किसी एक मुरब्बी या किसी एक सर-परस्त या किसी मख़्सूस गिरोह के ज़हनी तसलसुल में थी, चुनांचे उसने अपने ला-महदूद चाहने वालों की मर्ज़ी के मुताबिक़ हम्द, तसव्वुफ़, ना’त, मंक़ब्त, मो’जिज़ात, कशफ़-ओ-करामात, हुब्बुल-वतनी, रवादारी, सच्चाई, इन्साफ़, शुजा’अत, हुस्न-ओ-‘इ श्क़, हिज्र-ओ- विसाल, नाज़-ओ-अदा और जाम-ओ-मीना जैसे बे-शुमार मौज़ू अपने मज़ामीन में समेट लिए उनमें कई मौज़ू वो थे जो बिला-इम्तियाज़-ए-मज़हब-ओ-मिल्लत तमाम इन्सानों को एक मर्कज़ पर जम्अ कर लेते थे अपने मज़ामीन के तुफ़ैल क़व्वाली की ये मर्कज़ियत आज तक क़ाइम है और उन्हीं मज़ामीन के बा’इस क़व्वाली आज तक क़ौमी यक-जहती का मूअस्सर-तरीन ज़रीया बनी हुई है।

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