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क़व्वाली में अक़्वाल-ए-रसूल का इस्ति’माल और अक़्वाल-ए-ख़ुसरौ का इस्ति’माल

अकमल हैदराबादी

क़व्वाली में अक़्वाल-ए-रसूल का इस्ति’माल और अक़्वाल-ए-ख़ुसरौ का इस्ति’माल

अकमल हैदराबादी

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    रोचक तथ्य

    کتاب ’’قوالی امیر خسرو سے شکیلا بانو تک‘‘ سے ماخوذ۔

    क़व्वाली के इब्तिदाई मज़ामीन ''अक़्वाल-ए-रसूल' पर मुश्तमिल हैं या’नी उन कलिमात-ए-मुतबर्का पर जो कि आँ-हज़रत सल्लल्लाह अलैहि वसल्लम के दीन-ए-मुबारक से ‘अरबी नस्र में अदा हुए। उनमें भी ख़ुसूसियत के साथ वो अक़्वाल मुंतख़ब किए जाते थे जिनमें हज़रत ‘अली–ए-मुर्तज़ा की ता’रीफ़ होती थी। हज़रत ‘अली की मद्ह के बाइ’स ये सिलसिला मुसलमानों के इन हल्क़ों में तेज़ी से मक़्बूल होने लगा जो हज़रत ‘अली से दीगर मुसलमानों की ब-निस्बत ज़ियादा ‘अक़ीदत रखते थे।

    ‘’कलिमा-ए-तय्यब' और ''अल्लाह हू' की तकरार अक़्वाल-ए-रसूल के बा’द ''ला इलाहा इलल्लाह' और ''अल्लाह हू' की तकरार भी क़व्वाली के मज़ामीन में शामिल कर ली गए। इस वु’स्अत के बा’इस क़व्वाली मुसलमानों के मुख़्तलिफ़ हल्क़ों में से मज़ीद अफ़राद को मुतवज्जिह करने के क़ाबिल हो गई।

    अक़्वाल-ए-ख़ुसरौ : अक़्वाल-ए-रसूल ''कलिमा-ए-तय्यब’’ और ''अल्लाहहू की तकरार के बाद क़व्वाली में ख़ुसरो ने ख़ुद अपने ‘अरबी अक़्वाल भी शामिल किए जो ‘उमूमन हज़रत अली-ए-मुर्तज़ा की मद्ह पर मुश्तमिल होते थे।

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