क़व्वाली में ख़वातीन से मुक़ाबले
रोचक तथ्य
کتاب "قوالی امیر خسرو سے شکیلا بانو تک"سے ماخوذ۔
बीसवीं सदी छठी दहाई में जब पहली ख़ातून क़व्वाल शकीला बानो भोपाली ने क़व्वाली के मैदान में क़दम रखा तो मुक़ाबलों की दुनिया में एक हलचल सी मच गई, मर्दों और ‘औरतों का पहला मुक़ाबला शकीला बानो भोपाली और इस्माई’ल आज़ाद के दरमियान 1945-में हुआ, हुस्न-ओ-इ’श्क़ की ये सर-ए-आ’म तकरार ‘अवाम के लिए एक क़तई’ अनोखी चीज़ थी, जिसकी मिसाल इस अ’ह्द से पहले क़व्वाली के किसी स्टेज पे नहीं मिलती । इस में हर दो जानिब से एक दूसरे को बे-वफ़ा, हरजाई और ना-आश्ना-ए-अदब-ए-इश्क़ साबित करने की कोशिश की जाती है, शकीला बानो की तक़लीद में बहुत सी दूसरी ख़वातीन भी क़व्वाली के मैदान में आ गईं और मर्द -औरत का कभी न ख़त्म होने वाला मुक़ाबला स्टेज पर शुरू’ हो गया । आज मुक़ाबलों की दुनिया में यही मुक़ाबला सबसे ज़्यादा मक़बूल है । मुक़ाबलों में चूँकि मे’यारी कलाम पेश करने की गुंजाइश बहुत कम रह जाती है, इसलिए पहली ख़ातून क़व्वाल शकीला बानो भोपाली ने बहुत जल्द मुक़ाबलों से किनारा-कशी इख़्तियार कर ली । उनके बा’द आने वाली ख़वातीन में शकीला बानो पूनवी, कामिनी देवी, रज़िया बानो और रशीदा ख़ातून ने मर्दों से ख़ूब डट कर मुक़ाबले किए और काफ़ी शोहरत-ओ-मक़बूलियत पाई।
आज क़व्वाली के अ’वामी मुक़ाबलों में ख़ातून फ़नकारों की शिरकत एक जुज़्व-ए-लाज़िम बन गई है, जिसके बाइ’स सैकड़ों ख़वातीन क़व्वाली के मैदान में आ गई हैं। लेकिन शकीला बानो भोपाली के सिवा उनमें किसी की उ’म्र-ए-मक़बूलियत तवील न रही और उनमें कोई एक ख़ातून भी ता-दम-ए-तहरीर ऐसी न उभर सकी जो ग़ैर संजीदा स्टेज से हट कर किसी संजीदा महफ़िल में अपने तन्हा प्रोग्राम पर ज़िंदा रह सके । इस का पहला सबब ये है कि ये ख़वातीन अपने ज़ाती शौक़ और तजस्सुस के बजाय क़व्वाल हज़रात की तर्ग़ीब पर चंद ग़ज़लें, नज़्में और चंद गिने चुने अशआ’र रट कर मैदान में आ जाती हैं फिर नामवर क़व्वाल अपनी बरतरी जताने के लिए इन नौ-आमोज़ उन ख़वातीन को आला-ए-कार बना कर अपने ग़ैर-मे’यारी मज़ाक़ का मुज़ाहरा करने की राह निकाल लेते हैं जिससे अ’वाम के कम-ज़ौक़ तबक़े में इन हज़रात की मक़बूलियत बर-क़रार रहती है । उधर अपने नए-पन की वजह से ये ख़वातीन भी साल दो साल तो चल जाती हैं लेकिन अपनी फ़नकाराना सलाहियतों की कमी और घटिया इंतिख़ाब–ए-कलाम के बाइ’स देर-पा मक़बूलियत से महरूम रह जाती हैं। दूसरी मजबूरी ये कि जिन ख़वातीन के साथ क़व्वाल हज़रात मुक़ाबले लेने बंद कर देते हैं, इस तरह ये उभरती हुई ख़वातीन गोशा-ए-गुमनामी में रह जाती हैं। अगर ये ख़वातीन शकीला बानो की तरह तन्हा प्रोग्राम देकर कामयाबी हासिल करने की सलाहियत पैदा कर लें तो गुमनामी उनकी परछाईं को भी न छू पाए, इस मक़सद के हुसूल के लिए ख़वातीन को उर्दू मुताला’ बा-ज़ौक़ माहौल, अदबी मशाग़ुल, मे’यारी कलाम, अदा-आमोज़ी-ओ-मूसीक़ी की मश्क़ और ख़ुद-ए’तिमादी से सफ़-आरा होना होगा, वर्ना वो हमेशा क़व्वाल हज़रात के रहम-ओ-करम पर रहेंगी।
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