रदीफ़ काटना और चोट करना
रोचक तथ्य
کتاب ’’قوالی امیر خسرو سے شکیلا بانو تک‘‘ سے ماخوذ۔
रदीफ़ काटना : क़व्वाली के जदीद मुक़ाबलों में ''रदीफ़ की तकरार' की ब-निस्बत ''रदीफ़ काटने' के मुक़ाबले ज़्यादा मक़बूल हुए। इनमें दोनों क़व्वाल रात-भर किसी एक ही रदीफ़ को दोहराने के बजाय उस कलाम की रदीफ़ दोहराते हैं जिस रदीफ़ पर सामने वाले ने गाना ख़त्म किया। इस तरीक़े को ''रदीफ़ काटना' कहा गया, सामने वाले की रदीफ़ काट कर क़व्वाल फिर कोई नई चीज़ छेड़ देता है। अब दूसरा क़व्वाल इस नई चीज़ की रदीफ़ काटता है या’नी इस नई चीज़ की रदीफ़, क़ाफ़िया, बह्र और तर्ज़ पर नए मज़ामीन के साथ कलाम पढ़ता है। इस में एक अच्छाई ये है कि सामिई’न रात-भर किसी एक ही रदीफ़ की उकता देने वाली तकरार से दो-चार होने के बजाय हर टर्न में एक नई और दिल-चस्प रदीफ़ से लुत्फ़-अंदोज़ होते हैं जो क़व्वाल रदीफ़ काटने में ना-काम हो जाये उसकी शिकस्त तस्लीम कर ली जाती है। इस दौर में क़व्वाली लिखने वाले शो’रा ने ऐसी ऐसी मुश्किल ज़मीनों और बह्रों में अशआ’र निकाले हैं कि साबिक़ा उर्दू शाइ’री में इस की मिसाल बहुत कम मिलती है। इन मुक़ाबलों में क़व्वाल हज़रात अव्वल तो अपने हाफ़िज़े का कमाल दिखाते हैं लेकिन ये भी हक़ीक़त है कि इन क़व्वालों के साथ कई कई शाइ’र लगे होते हैं जो मुक़ाबलों के मौक़ों’ पर फ़िल-बदीह कह कर देते हैं ।और क़व्वालों का कमाल ये कि साज़ की आड़ में पर्चा रखकर इस सफ़ाई से कलाम पढ़ते हैं कि न पर्चा-बाज़ी का शुबहा होता है और न उस की रवानी में फ़र्क़ आता है जिन क़व्वालों में पर्चा-बाज़ी की ये सफ़ाई नहीं होती वो मिस्रा’ पढ़ते हुए इतनी बार अटकते हैं कि अच्छा ख़ासा मज़ाक़ बन जाते हैं।
चोट करना : रदीफ़ की तकरार और रदीफ़ काटने के मुक़ाबलों में कलाम का मे’यार बर-क़रार रखना मुश्किल होता है, इसलिए कुछ क़व्वाल हज़रात ने मुक़ाबलों में ''चोट का तरीक़ा अपनाया। इसमें रदीफ़ की तकरार या रदीफ़ काटने के बजाय चंद क़ितआ’त या कुछ अशआ’र तहत-अल-लफ़्ज़ पढ़ दिए जाते हैं, जिनके मज़ामीन में सामने वाले पर कोई चोट होती है। इन क़ितआ’त के पढ़ने के बा’द क़व्वाल हज़रात अपने अपने मख़्सूस और मक़बूल आइटम पेश करते हैं, चोट का ये सिलसिला अ’वाम में बे-हद मक़बूल हुआ क्योंकि इस से सामिई’न कुछ देर छेड़-छाड़ का मज़ा भी ले लेते हैं और दीगर कलाम से भी लुत्फ़-अंदोज़ हो पाते हैं।
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