हज़रत शैख़ बहाउद्दीन ज़करिया सुहरावर्दी रहमतुल्लाह अ’लैह
हज़रत शैख़ बहाउद्दीन ज़करिया सुहरावर्दी रहमतुल्लाह अ’लैह
सूफ़ीनामा आर्काइव
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ख़ानदानः-
हज़रत शैख़ बहाउद्दीन ज़करिया क़ुद्दि-स सिर्रहुल-अ’ज़ीज़ के जद्द-ए-बुज़ुर्गवार हज़रत कमालुद्दीन अ’ली शाह क़बीला-ए-क़ुरैश से तअ’ल्लुक़ रखते थे। फ़रिश्ता तज़्किरा-ए-औलिया-ए-हिंद मुसन्नफ़ा शैख़ ऐ’नुद्दीन बीजापुरी के हावाला से रक़म-तराज़ है कि
“शैख़ बहाउद्दीन ज़करिया औलाद-ए-हयार बिन असद बिन मुत्तलिब बिन असद बिन अ’ब्दुल-अ’ज़ीज़ बिन अक़्सा अस्त-ओ-हयार इस्लाम आवुर्दःबूद, बिरादरान-ए-ऊ दम्’आ-ओ-उ’मर-ओ-अ’क़ील ब-हालत-ए-कुफ़्र दर जंग-ए-बद्र ब-क़त्ल रसीदंद”।
शैख़ बहाउद्दीन ज़करिया के जद्द-ए-अमजद हज़रत कमालुद्दीन शाह क़ुरैशी मक्का हुअ’ज़्ज़मा से ख़वारिज़्म आए और वहाँ से आकर मुल्तान में सुकूनत इख़्तियार फ़रमाई।यहाँ उनके फ़र्ज़ंद मौलाना वहीदुद्दीन मोहम्मद तवल्लुद हुए, जिनकी शादी मौलाना हुसामुद्दीन तिर्मिज़ी की लड़की से हुई।मौलाना हुसामुद्दीन तातारियों के हमला की वजह से मुल्तान के नवाह क़िला’ कोट करोर में मुतवत्तिन थे। मौलाना वजीहुद्दीन भी ख़ुस्र के साथ क़िला’ कोट करोर में रहने लगे, और यहीं हज़रत शैख़ बहाउद्दीन ज़करिया की विलादत-ए-बा-सआ’दत हुई।
ता’लीमः-
बारह साल के हुए तो वालिद-ए-बुज़ुर्गवार आ’लम-ए-जावेदानी को सिधारे। वालिद की वफ़ात की के बा’द कलाम-ए-पाक हिफ़्ज़ करना शुरुअ’ किया।सातों क़िरातों के साथ हिफ़्ज़ कर चुके तो मज़ीद ता’लीम के लिए ख़ुरासान की तरफ़ चल पड़े।यहाँ पहुँच कर सात साल तक बुज़ुर्गान-ए-दीन से उ’लूम-ए-ज़ाहिरी-ओ-बातिनी की तहसील करते रहे।यहाँ से बुख़ारा जाकर इ’ल्म में कमाल हासिल किया।उनके औसाफ़-ए-पसंदीदा और ख़साएल-ए-हमीदा की वजह से बुख़ारा के लोग उनको बहाउद्दीन फ़रिश्ता कहा करते थे।यहाँ आठ साल तक तहसील-ए-इ’ल्म करते रहे। फिर बुख़ारा से हज के इरादा से मक्का मुअ’ज़्ज़मा गए।वहाँ से रौज़ा-ए-अक़्दस की ज़ियारत के लिए मदीना मुनव्वरा हाज़िर हुए और पाँच साल तक जवार-ए-रसूल में ज़िंदगी बसर की।इस मुद्दत में मौलाना कमालुद्दीन मोहम्मद से जो अपने अ’ह्द के जलीलुल-क़द्र मुहद्दिस थे, हदीस पढ़ी।मौलाना कमालुद्दीन मोहम्मद ने तिरपन साल तक मुजाविर की हैसियत से हरम-ए-नबवी की ख़िदमत की।हज़रत बहाउद्दीन ज़करिया ने हदीस की ता’लीम से फ़राग़त के बा’द रौज़ा-ए-अक़्दस के पास तज़्किया-ए-क़ल्ब और तस्फ़िया-ए-बातिन के लिए मुजाहिदा शुरुअ’ किया।फिर वहाँ से चल कर बैतुल-मुक़द्दस पहुँचे, और वहाँ से बग़दाद शरीफ़ गए।
बैअ’तः-
बग़दाद में हज़रत शैख़ुश्शुयूख़ शहाबुद्दीन सुहरवर्दी की सोहबत से फ़ैज़-याब हो कर ख़िर्क़ा-ए-ख़िलाफ़त पाया।हज़रत ख़्वाजा निज़ामुद्दीन औलिया रहमतुल्लाह अ’लैह फ़रमाते हैं कि शैख़ बहाउदद्न ज़करिया ने अपने मुर्शिद के पास सिर्फ़ सत्तर रोज़ क़ियाम फ़रमाया था कि उनको पीर-ओ-दस्तगीर की तरफ़ से सारी रूहानी ने’मतें मिल गईं, और ख़िर्क़ा-ए-ख़िलाफ़त से भी सरफ़राज़ किए गए।इससे शैख़ुश्शुयूख़ हज़रत शहाबुद्दीन सुहरवर्दी के दूसरे मुरीदों के दिल में शक पैदा हुआ, और शैख़ से अ’र्ज़ की कि हमने इतने दिनों तक ख़िदमत की लेकिन हमको ऐसी ने’मत नहीं मिली मगर एक हिंदुस्तानी आया, और थोड़ी सी मुद्दत में शैख़ हो गया, और बड़ी ने’मत पाई।
मगर शैख़ ने उनको ये कह कर ख़ामोश कर दिया कि तुम तर लकड़ियों के मानिंद थे जिसमें आग जल्द असर करती है।
शज्रा-ए-तरीक़तः–
सिलसिला-ए-तरीक़त ये है: शैख़ बहाउद्दीन ज़करिया, शैख़ शहाबुद्दीन सुहरवर्दी, शैख़ ज़ियाउद्दीन अबू नजीब सुहरवर्दी, शैख़ वजीहुद्दीन सुहरवर्दी, शैख़ अबू अ’ब्दुल्लाह, शैख़ अस्वद अहमद दिनवरी, शैख़ मुम्ताज़ अ’ली दिनवरी, ख़्वाजा जुनैद बग़दादी, ख़्वाजा सरी सक़्ती, ख़्वाजा मा’रूफ़ कज़ख़ी, ख़्वाजा दाऊद ताई, ख़्वाजा हबीब अ’जमी, हज़रत इमाम हसन रज़ियल्लाह, हज़रत अ’ली कर्रमल्लाहु वज्हहु जनाब सरवर-ए-काएनात सल्लल्लाहु अ’लैहि व-सलल्लम।
अ’ज़्मत-ए-मुर्शिदः
ख़िर्क़ा-ए-ख़िलाफ़त पाने के बा’द हज़रत बहाउद्दीन ज़करिया को मुर्शिद की तरफ़ से हुक्म मिला कि मुल्तान वापस जाकर क़ियाम करो और वहाँ के बाशिंदों को फ़ैज़ पहुँचाओ।जलालुद्दीन तबरेज़ी भी शैख़ुश्शुयूख़ के साथ मुक़ीम थे।जब हज़रत बहाउद्दीन ज़करिया बग़दाद से रुख़्सत होने लगे तो ग़ायत-ए-मोहब्बत में वो भी अपने पीर से इजाज़त ले कर उनके साथ हो गए।बयान किया जाता हैं कि जब दोनों बुज़ुर्ग निशापुर पहुँचे तो शैख़ जलालुद्दीन तबरेज़ी, हज़रत शैख़ फ़रीदुद्दीन अ’त्तार रहमतुल्लाह अ’लैह की ख़िदमत में तशरीफ़ ले गए।मुलाक़ात के बा’द वापस हुए तो हज़रत शैख़ बहाउद्दीन ज़करिया ने उनसे दरयाफ़्त किया कि आज की सैर में दरवेशों में किसको सब से बेहतर पाया ।बोले शैख़ फ़रीदुद्दीन अ’त्तार को।हज़रत बहाउद्दीन ज़करिया ने पूछा कि उनसे क्या क्या सोहबत रही।जवाब दिया कि मुझको देखते ही उन्होंने दरयाफ़्त किया कि आप लोगों का कहाँ से आना हुआ।मैं ने अ’र्ज़ की ख़ित्ता-ए-बग़दाद से आता हूँ।फिर इस्तिफ़्सार किया कि वहाँ कौन दरवेश मशग़ूल ब-हक़ हैं।मैं ने इसका कोई जवाब न दिया।हज़रत शैख़ बहाउद्दीन ज़करिया ने हज़रत जलालुद्दीन तबरेज़ी से पूछा कि अपने मुर्शिद शैख़ बहाउद्दीन सुहरवर्दी का ज़िक्र क्यूँ न किया।जवाब दिया कि शैख़ फ़रीदुद्दीन रहमतुल्लाह अ’लैह की अ’ज़्मत मेरे दिल पर ऐसी छाई हुई थी कि शैख़ुश्शुयूख़ शहाबुद्दीन सुहरवर्दी को भूल गया।ये सुन कर शैख़ बहाउद्दीन ज़करिया को बहुत मलाल हुआ और वो हज़रत जलालुद्दीन तबरेज़ी से अ’लाहिदा होकर मुल्तान चले आए, और हज़रत जलालुद्दीन तबरेज़ी रहमतुल्लाह अ’लैह ख़ुरासान जा कर मुक़ीम हुए।
क़ियाम-ए-मुल्तानः-
मुल्तान की मुद्दत-ए-क़ियाम में न सिर्फ़ मुल्तान बल्कि सारा हिंदुस्तान हज़रत बहाउद्दीन ज़करिया रहमतुल्लाह अ’लैह के फ़ुयूज़-ओ-बरकात के अनवार से मुनव्वर हो गया था और उनका अ’ह्द ख़ैरुल-आ’सार कहा जाता है।
शैख़ मोहम्मद नूर बख़्श मुअल्लिफ़, सिलसिलातुज़्ज़हब में रक़मतराज़ हैं –
“हज़रत बहाउद्दीन ज़करिया मुल्तानी हिंदुस्तान में रईसुल-औलिया थे।उ’लूम-ए-ज़ाहिरी के आ’लिम और मुकाशफ़ात-ओ-मुशाहदात के मक़ामात-ओ-अहवाल में कामिल थे।उनसे अक्सर औलिया-अल्लाह के सिलसिले मुंशइ’ब हुए।लोगों को रुश्द-ओ-हिदायत फ़रमाई और उनको कुफ़्र से ईमान की तरफ़, मा’सियत से इताअ’त की तरफ़ और नफ़्सानियत से रूहानियत की तरफ़ लाए और उनकी शान बड़ी थी ’’।
सफ़ीनतुल-औलिया में हैः-
“हज़रत शैख़ुश्शुयूख़ से रुख़्सत होकर मुल्तान आए और यहीं तवत्तुन इख़्तियार किया।रुश्द-ओ-हिदायत में मशग़ूल हुए तो बहुत से लोगों ने उनकी हिदायत की बरकत पाई और उस दयार के तमाम लोग उनके मुरीद और मो’तक़िद हो गए।उस दयार में तमाम मुरीद उन्हीं के हैं।”(सफ़हा 197)
रुश्द-ओ-हिदायत अ’वाम-ओ-ख़्वास दोनों के लिए थी और दोनों तबक़ों को अपनी ज़ात-ए-बा-बरकत से फ़ैज़ पहाँने की कोशिश फ़रमाते।उस वक़्त मुल्तान का हुक्मराँ नासिरुद्दीन क़बाचा था जो सुल्तान शम्सुद्दीन अल्तमिश का हरीफ़ था। हज़रत शैख़ बहाउद्दीन ज़करिया का क़ल्बी रुजहान सुल्तान अल्तमिश की तरफ़ था क्यूँकि जैसा कि ज़िक्र आ चुका है, वो अपने ज़ोहद-ओ-तक़्वा, दीन-दारी, और शरीअ’त की पासदारी के लिहाज़ से औलिया-अल्लाह में शुमार किया जाता है।नासिरुद्दीन क़बाचा ने सुल्तान अल्तमिश की बढ़ती हुई सतवत-ओ-क़ुव्वत को देखकर उसके ख़िलाफ़ मुआ’निदाना साज़िश शुरुअ’ की।इसको मुल्तान के क़ाज़ी मौलाना शरफ़ुद्दीन अस्फ़हानी और ख़ुद शैख़ बहाउद्दीन ज़करिया ने पसंद न किया। क़ाज़ी शरफ़ुद्दीन अस्फ़हानी बहुत ही मुतदय्यन आ’लिम थे।उन्होंने दीन की फ़लाह इसी में देखी कि सुल्तान अल्तमिश को क़बाचा की साज़िश से मुत्तला’ कर दें।शैख़ बहाउद्दीन ज़करिया ने भी उनकी हिमायत की और दोनों ने अ’लाहिदा-अ’लाहिदा सुल्तान अल्तमिश को ख़ुतूत लिखे।मगर दोनों मक्तूब क़बाचा के आदमियों के हाथ लग गए।क़बाचा इनको पढ़ कर बहुत मुश्तइ’ल हुआ और एक महज़र के ज़रिआ’ दोनों को तलब किया।जब वो दोनों बुज़ुर्ग मज्लिम में तशरीफ़ ले गए तो क़बाचा ने शैख़ बहाउद्दीन ज़करिया को अपनी दाहिनी जानिब बिठाया और क़ाज़ी शरफ़ुद्दीन अस्फ़हानी को अपने रू-ब-रू बैठने का हुक्म दिया,और उनका ख़त उनके हाथ में दे दिया।क़ाज़ी शरफ़ुद्दीन अस्फ़हानी ने ख़त पढ़ कर ख़ामोशी इख़्तियार की।क़बाचा ने ग़ुस्सा में जल्लाद को हुक्म दिया कि इसी वक़्त ये तह-ए-तेग़ कर दिए जाएं।जल्लाद ने आगे बढ़ कर सर क़लम कर दिया।जब शैख़ बहाउद्दीन ज़करिया के हाथ में उनका मक्तूब दिया गया तो उन्होंने देखते ही फ़रमाया कि बेशक ये मेरा ख़त है, मगर मैं ने हक़-तआ’ला के हुक्म से लिखा है और सही लिखा है।ये सुन कर क़बाचा पर लर्ज़ा तारी हो गाय और उसने मा’ज़रत कर के शैख़ बहाउद्दीन ज़करिया को ए’ज़ाज़-ओ-इकराम के साथ रुख़्सत किया।
फ़य्याज़ीः-
आप ख़ल्क़ की ख़ातिर शाही हुक्काम के साथ इश्तिराक-ए-अ’मल करने में भी दरेग़ न फ़रमाते।मुल्तान में एक बार सख़्त क़हत पड़ा। मुल्तान को ग़ल्ला की ज़रूरत हुई।शैख़ बहाउद्दीन ज़करिया ने ग़ल्ला की एक बड़ी मिक़्दार अपने हाँ से उसके पास भेजी।जब ग़ल्ला उसके पास पहुँचा तो उस अंबार से नुक़रई टंके के सात कूज़े भी निकले। वाली-ए-मुल्तान ने शैख़ को इसकी इत्तिलाअ’ दी तो उन्हों ने फ़रमाया हमको पहले से मा’लूम था, लेकिन ग़ल्ला के साथ उसे भी हम ने बख़्शा।
हज़रत शैख़ बहाउद्दीन ज़करिया के मतबख़ में तरह तरह के खाने पकते थे लेकिन उनको उन ने’मतों के खाने में उसी वक़्त लज़्ज़त मिलती जब वो मेहमानों, मुसाफ़िरों और दरवेशों के साथ मिल कर खाते।जिस शख़्स को देखते कि वो खाना रग़बत से खाता है तो उसको बहुत दोस्त रखते थे। एक मर्तबा फ़ुक़रा की एक बड़ी जमाअ’त दस्तरख़्वान पर शरीक थी।हज़रत शैख़ बहाउद्दीन ज़करिया ने हर फ़क़ीर के साथ एक लुक़्मा खाया।एक फ़क़ीर को देखा कि रोटी शोरबे में भिगो कर खा रहा है।फ़रमाया सुब्हानल्लाह इन सब फ़क़ीरों में ये फ़क़ीर ख़ूब खाना जानता है क्यूँकि रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अ’लैहि व-सल्ललम ने फ़रमाया कि नान-ए-तर को और खानों पर वही फ़ज़ीलत है जो मुझको अंबिया पर है और आ’इशा रज़ि-अल्लाहु अ’न्हा को तमाम दुनिया की औ’रतों पर है।
इस्तिग़नाः-
हज़रत शैख़ ज़करिया को कभी दौलत की कमी महसूस न हुई मगर वो ख़ुद इससे हमेशा मुस्तग़ना-ओ-बे-नियाज़ रहे।एक रोज़ ख़ुद्दाम से फ़रमाया कि जाओ जिस संदूक़चा में पाँच हज़ार दीनार-ए-सुर्ख़ रखे हैं, उसको उठा लाओ।ख़ादिम ने हर चंद तलाश किया मगर संदूक़चा कहीं न मिला।वो मायूस होकर वापस आया और शैख़ को इत्तिलाअ’ दी। कुछ तअम्मुल के बा’द फ़रमाया अल-हम्दु-लिल्लाह। थोड़ी देर के बा’द ख़ादिम फिर आया और संदूक़चा के मिल जाने की इत्तिलाअ’ दी। फिर अल-हम्दु-लिल्लाह कह कर ख़ामोश हो गए। हाज़िरीन ने अ’र्ज़ की कि हज़रत ने संदूक़चा गुम होने पर भी अल-हम्दु-लिल्लाह फ़रमाया और मिल जाने पर भी।इस में क्या हिक्मत थी।इर्शाद फ़रमाया कि फ़क़ीरों के लिए दुनिया का वजूद और अ’दम दोनों बराबर है। उसको किसी चीज़ के आने पर न ख़ुशी होती है, और न उसके जाने का ग़म होता है,और पाँचों हज़ार दीनार हाजत-मंदों में तक़्सीम करा दिए।
बुर्दबारीः-
मिजाज़ में हिल्म-ओ-बुर्दबारी बहुत थी।एक रोज़ ख़ानक़ाह में तशरीफ़ फ़रमा थे कि दल्क़-पोश क़लंदरों की एक जमाअ’त पहुँची और उन से माली मदद की दरख़्वास्त हुई। उन्होंने उस जमाअ’त से बेज़ारी का इज़हार फ़रमाया। इस पर क़लंदरों ने गुस्ताख़ी शुरुअ’ कर दी और ईंट पत्थर से उनको मारने लगे।हज़रत शैख़ ने ख़ादिम से फ़रमाया कि ख़ानक़ाह का दरवाज़ा बंद कर दो।जब दरवाज़ा बंद हो गया तो क़लंदरों ने दरवाज़ा पर पत्थर मारने शुरुअ’ किए।हज़रत शैख़ ने कुछ तअम्मुल के बा’द ख़ादिम से फ़रमाया दरवाज़ा खोल दो।मैं इस जगह शैख़ शहाबुद्दीन उ’मर सुहरवर्दी का बिठाया हुआ हूँ, ख़ुद से नहीं बैठा हूँ ।ख़ादिम ने दरवाज़ा खोल दिया।उस वक़्त क़लंदर नादिम हुए और अपने क़ुसूर की मुआ’फ़ी चाही।
तवाज़ो’-
ग़ायत-ए-तवाज़ो’ में अपनी ता’ज़ीम-ओ-तकरीम पसंद नहीं फ़रमाते थे।एक बार ख़ानक़ाह में कुछ मुरीद हौज़ के किनारे वुज़ू कर रहे थे।हज़रत शैख़ बहाउद्दीन ज़करिया उनके पास पहुँच गए।मुरीदों ने वुज़ू ख़त्म भी नहीं किया था कि ता’ज़ीम के लिए खड़े हो गए और सलाम अ’र्ज़ किया।मगर एक मुरीद ने वुज़ू कर के मरासिम-ए-ता’ज़ीम अदा किए।हज़रत शैख़ बहाउद्दीन ज़करिया ने फ़रमाया तुम सब दरवेशों में अफ़ज़ल और ज़ाहिद हो।
मगर वो ख़ुद दूसरों की बड़ी ता’ज़ीम करते थे।हज़रत ख़्वाजा क़ुतुबुद्दीन बख़्तियार काकी रहमतुल्लाह अ’लैह जब वारिद-ए-हिंदुस्तान हुए और मुल्तान आ कर ठहरे तो हज़रत शैख़ बहाउद्दीन ज़करिया उनसे ता’ज़ीम और मोहब्बत और शफ़क़त से मिले और इसरार कर के कुछ दिनों उनको अपने यहाँ रोका।हज़रत ख़्वाजा बख़्तियार काकी रहमतुल्लाह अ’लैह भी हज़रत शैख़ बहाउद्दीन ज़करिया की बड़ी क़द्र करते थे।चुनाँचे जब मो’तक़ेदीन ने उनको मुल्तान में क़ियाम करने की दा’वत दी, तो फ़रमाया कि मुल्तान की सर-ज़मीन पर शैख़ बहाउद्दीन का क़ब्ज़ा और साया काफ़ी है, यहाँ उन्हीं का तअ’ल्लुक़ है, उन्हीं की हिमायत तुम लोगों के साथ रहेगी।
मोहब्बत-ओ-मवद्दतः-
हज़रत शैख़ बहाउद्दीन ज़करिया बाबा गंज शकर की भी बहुत इ’ज़्ज़त करते थे।बा’ज़ तज़्रकिरा-निगारों ने लिखा है कि दोनों ख़ाला-ज़ाद भाई भी थे और बाहम बड़ी मोहब्बत और मवद्दत थी।हज़रत शैख़ बहाउद्दीन ज़करिया ने एक मौक़ा’ पर किसी बात की मा’ज़रत करते हुए बाबा साहब को लिखा:
“मियान मा-ओ-शुमा इ’श्क़-बाज़ी अस्त”
बाबा गंजशकर ने इसका जवाब दिया:
“मियान मा-ओ-शुमा इ’श्क़ अस्त बाज़ी नीस्त”
महज़रः-
एक मौक़ा’ पर हज़रत जलालुद्दीन तबरेज़ी रहमतुल्लाह अ’लैह के साथ शैख़ बहाउद्दीन ज़करिया रहमतुल्लाह अ’लैह ने इ’ज़्ज़त-ओ-एहतिराम का जो नमूना पेश किया था, उसका ज़िक्र बादा-ए-तसव्वुफ़ के सरशारों के लिए बहुत ही ख़ुमार आगीन है।ऊपर बयान किया जा चुका है कि हज़रत जलालुद्दीन तबरेज़ी निशापुर में हज़रत शैख़ बहाउद्दीन ज़करिया से अ’लाहिदा हो कर ख़ुरासान चले गए थे। कुछ अ’र्सा के बा’द देहली तशरीफ़ लाए।सुल्तान अल्तमिश उनकी अ’ज़्मत और बुज़ुर्गी की शोहरत पहले से सुन चुका था।चुनाँचे जब वो देहली के क़रीब पहुँचे तो सुल्तान ने उ’लमा-ओ-मशाइख़ की एक जमाअ’त के साथ शहर के बाहर जाकर उनका इस्तिक़बाल किया और उनको देखते ही घोड़े से उतर आया और उनको आगे कर के ख़ुद पीछे-पीछे शहर की तरफ़ रवाना हुआ।ये ता’ज़ीम-ओ-तकरीम शैख़ुल-इस्लाम नज्मुद्दीन सोग़रा को पसंद न आई ।उनके दिल में हज़रत जलालुद्दीन तबरेज़ी रहमतुल्लाह अ’लैह की तरफ़ से रश्क-ओ-हसद की आग भड़क उठी मगर इसका इज़हार नहीं किया और सुल्तान से ये ख़्वाहिश ज़ाहिर की कि हज़रत जलालुद्दीन तबरेज़ी उस की (या’नी नजमुद्दीन सुग़रा) क़ियाम-गाह के क़रीब ही फ़रोकश हों, और क़ियाम के लिए एक मकान तज्वीज़ किया जो बैतुल-जिन के नाम से मशहूर था।सुल्तान ने अपने अ’ज़ीज़ और महबूब मेहमान को जिन्नों के मकान में ठहराना पसंद न किया।मगर नज्मुद्दीन सोग़रा ने कहा अगर हज़रत जलालुद्दीन तबरेज़ी कामिल दरवेश होंगे तो मकान ख़ुद जिन्नात से पाक हो जाएगा और नाक़िस होंगे तो अपनी फ़रेब-देही की सज़ा पाएंगे ।ये गुफ़्तुगू बिल्कुल अ’लाहिदा हुई थी मगर हज़रत जलालुद्दीन ने ख़ुद उस मकान में रहने का ऐ’लान कर दिया।जब वो उस मकान में दाख़िल हुए तो उनके क़दम की बरकत से मकान तमाम बलिय्यात से पाक हो गया और उनको किसी क़िस्म का गज़ंद न पहुँचा। दूसरे रोज़ हज़रत ख़्वाजा बख़्तियार काकी रहमतुल्लाह अ’लैह की मुलाक़ात के लिए शहर की तंग गलियों में से होकर चले।हज़रत बख़्तियार काकी को कश्फ़ हुआ कि हज़रत जलालुद्दीन तबरेज़ी उनसे मिलने आ रहे हैं तो वो ख़ुद गलियों में होते हुए उनके इस्तिक़बाल को बढ़े।रास्ता क़िरानुस्सा’दैन हुआ।जिस वक़्त हज़रत जलालुद्दीन ख़्वाजा बख़्तियार के हमराह उनकी ख़ानक़ाह पहुँचे, उस वक़्त यहाँ मज्लिस-ए-समाअ’ हो रही थी।फ़ुक़रा जम्अ’ थे।इस बैत पर ख़्वाजा साहब को वज्द आ गया ,
दर मय-कदः-ए-वहदत ईसार नमी-गुंजद
दर आ’लम-ए-यकरंगी अग़्यार नमी-गुंजद
सुल्तान अल्तमिश हज़रत जलालुद्दीन तबरेज़ी रहमतुल्लाह अ’लैह के साथ मुर्शिद का ये लगाव देख कर उनका और भी मो’तक़िद हो गया।इस से नज्मुद्दीन सोग़रा का हसद और ज़्यादा बढा।एक रोज़ मौसम-ए-बहार में सुल्तान अल्तमिश ने फ़ज्र की नमाज़ से पहले नज्मुद्दीन सोग़रा को अपने महल में बुलाया और उनको इमाम बनाया।नमाज़ शाही महल की छत पर हुई।छत के सामने हज़रत जलालुद्दीन तबरेज़ी की क़ियाम-गाह थी।वो सुब्ह की मनाज़ से फ़राग़त के बा’द सहन-ए-ख़ाना में चादर ओढे आराम फ़रमा रहे थे, और एक मुलाज़िम को जिसे अल्लाह तआ’ला ने हुस्न-ए-सूरत भी अ’ता किया था, उनके पाँव दबा रहा था।नज्मुद्दीन सोग़रा को ख़याल हुआ कि हज़रत जलालुद्दीन तबरेज़ी रहमतुल्लाहि अ’लैह नमाज़ से ग़ाफ़िल होकर मह्व-ए-इस्तिराहत हैं।उसी वक़्त सुल्तान का हाथ पकड़ कर कहा कि आप ऐसे ही दुनिया-परस्त दरवेशों के मो’तक़िद हैं।ये सोने का कौनसा वक़्त है।और एक साहिब-ए-जमाल ग़ुलाम भी पास बैठा है। हज़रत जलालुद्दीन तबरेज़ी को नूर-ए-बातिन से नज्मुद्दीन सोग़रा की बद-गुमानी मा’लूम हो गई।उसी वक़्त उठे, और सहन-ए-ख़ाना में सुल्तान को हक़ीक़त से आगाह किया ।सुल्तान नादिम हुआ और नज्मुद्दीन सोग़रा से कहने लगा कि तुम शैख़ुल-इस्लाम हो कर ऐसी बातें करते हो।तुम को नेक-ओ-बद की भी पहचान नहीं।मगर नज्मुद्दीन सोग़रा शर्मिंदा होने के बजाए अंदरूनी तौर पर बरहम हो गए और हज़रत जलालुद्दीन तबरेज़ी के साथ परख़ाश बहुत ज़ियादा बढ गई, और शहर की एक हसीन-ओ-जमील मुतरिबा को पाँच सो अशरफ़ियाँ देने का वा’दा कर के आमादा किया कि वो हज़रत जलालुद्दीन तबरेज़ी पर फ़िस्क़-ओ-ज़िना का इल्ज़ाम लगाए।मुतरिबा ने सुल्तान के पास जाकर हज़रत जलालुद्दीन तबरेज़ी को मुत्तहिम किया।सुल्तान सुन कर शश-दर हो गया।वो समझता था कि ये झूटा <