तज़्किरा जानी बाबू क़व्वाल
रोचक तथ्य
کتاب ’’قوالی امیر خسروؔ سے شکیلہ بانو تک‘‘ سے ماخوذ۔
जानी बाबू एक सुरीली, मीठी और पुर-कशिश आवाज़ के मालिक हैं। उनकी तबीअ’त में मूसीक़ी ऐसे कूट कूट कर भरी हुई है, जैसे पैमानों में लबालब शराब कि जिसे ज़रा सी जुंबिश हुई और छलक पड़ी। ये वो ने’मत है जो दूसरे क़व्वालों को कम ही मुयस्सर हुई। जानी इस ने’मत की क़द्र भी करते हैं। वो अपने मिज़ाज और अपनी शीरीं-आवाज़ के मुज़ाहरे के लिए मूसीक़ी के जिन जिन लवाज़िमात की ज़रूरत महसूस करते हैं उन्हें अपनी पार्टी में बिला-तकल्लुफ़ शामिल कर लेते हैं। जानी हिन्दोस्तान के पहले क़व्वाल हैं जिन्हों ने क़व्वाली में ऑर्केस्ट्रा को बा-ज़ाबतगी के साथ रिवाज दिया, ऑर्केस्ट्रा के इस्ति’माल पर जानी को जो उ’बूर हासिल है वो किसी और क़व्वाल को नहीं, दूसरी पार्टियों में ऑर्केस्ट्रा शोर-शराबे का काम तो देता है लेकिन जानी की तरह रूह की तस्कीन मुहय्या नहीं करता, क़व्वाली का फ़न जिसकी बुनियाद मज़ामीन पर है इसमें जानी ने मूसीक़ी की अहमियत को उजागर करने की कामयाब कोशिश की। वो क़व्वाली में शे’र और नग़मे को साथ साथ लेकर चलते हैं, उन्हें साज़ और आवाज़ के इम्तिज़ाज-ओ-इस्ति’माल का पूरा पूरा सलीक़ा है, वो हिन्दोस्तान के पहले क़व्वाल हैं जो ब-हैसियत-ए-मूसीक़ार किसी फ़िल्म से वाबस्ता रहे और वो फ़िल्म मुकम्मल हो कर रीलीज़ भी हुई, इस फ़िल्म के लिए सुमन कल्याणपूरी की आवाज़ में गवाया हुआ उनका गीत ''मेरे महबूब न जा, आज की रात न जा' फिल्मों के मक़बूल गीतों में शुमार किया जाता है।
जानी ख़ुश-पोश, जामा-ज़ेब, ख़ूबसूरत और हँस-मुख शख़्सियत के मालिक हैं। वो स्टेज पर बड़ी बुर्द-बारी के साथ बैठते हैं लेकिन शोख़-नग़मों के दौरान शोख़ी-ओ-शरारत की इंतिहा करने से भी नहीं चूकते। लतीफ़ जज़्बात और नाज़ुक मज़ामीन का इंतिख़ाब जानी की ख़ास तबीअ’त है। इन अशआ’र को वो इतनी मुहब्बत और इतने रचाव के साथ पेश करते हैं जैसे वो किसी और शाइ’र के अशआ’र नहीं बल्कि ख़ुद उनके खून-ए-जिगर से लिखी हुई इ’बारत हो, वो शे’र पढ़ने में इंतिहाई नफ़ासत और रख-रखाव के आ’दी हैं। वो अशआ’र को मुकालमों के अंदाज़ में पढ़ते हैं और मफ़हूम के मुताबिक़ एक्शन करने के फ़न से भी वाक़िफ़ हैं क़व्वाल बिरादरी में सिर्फ़ जानी ही ऐसे मर्द हैं जिनको ऐक्शण भाता है।
जानी एक ज़हीन और रौशन ख़याल फ़नकार हैं।उन्होंने क़व्वालों की आम रविश से हट कर आला मे’यार पर ज़िंदगी गुज़ारने की पहल की।रहन-सहन, लिबास, तअ’ल्लुक़ात और अपनी समाजी हैसियत के बुलंद करने में जानी ने अहम रोल अदा किया है। आज क़व्वालों में जानी का रहन सहन और तरीक़ा-ए-ज़िंदगी सबसे आ’ला-ओ-माडर्न है, उन्होंने अपने आपको अ’स्र-ए-हाज़िर के अहम तक़ाज़ों के मुताबिक़ ढाल लिया, जिसकी ब-दौलत दीगर क़व्वाल हज़रात भी रफ़्ता-रफ़्ता उनकी तक़लीद करने की जसारत करने लगे हैं।
जानी कम प्रोग्राम करते लेकिन बड़े मुआ’वज़ो़ के उसूल को पसंद करते हैं।वो मुक़ाबलों में हरीफ़ के ज़्यादा मुँह लगने के बजाय ‘अवाम से ये मनवा लेते हैं कि ये हरकत इंतिहाई छिछोरी और अ’ज़मत-ए-फ़न के ख़िलाफ़ है। वो चोट के जवाब में चंद ऐसे अशआ’र पढ़ देते हैं जिनमें चोट करने वाले पर हमले के बजाय चोट-बाज़ी की रविश पर तन्क़ीद होती है। इसके बा’द वो फ़ौरी अपनी शदीद मेहनत से तैयार किए हुए आइटम शुरू’ कर देते हैं जिनसे ‘अवाम बे-हद लुत्फ़ लेते हैं। ग्रामोफ़ोन, रेडियो, फ़िल्म और टेलीविज़न पर भी जानी को वही मक़बूलियत नसीब हुई जो उन्हें स्टेज पर मुयस्सर रही।
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