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ज़िक्र-ए-ख़ैर ख़्वाजा रुकनुद्दीन इश्क़

रय्यान अबुलउलाई

ज़िक्र-ए-ख़ैर ख़्वाजा रुकनुद्दीन इश्क़

रय्यान अबुलउलाई

MORE BYरय्यान अबुलउलाई

    ख़्वाजा रुकनुद्दीन इश्क़ एक महान सूफ़ी शा’इर हुए हैं। अगर उनकी ज़िंदगी और शाइरी नज़र डालें, तो अंदाज़ा हो जाता है कि उनकी शा’इरी में वो सब चीज़ें मौजूद है, जो एक सच्चे सूफ़ी में पाई जाती हैं। उनकी ख़ानक़ाह बिहार में ‘बारगाह-ए-इश्क़’ के नाम से मशहूर है। यहाँ रंग-ओ-मस्ती और जोश-ओ-ख़रोश का एक बड़ा ख़ज़ाना छुपा हुआ है।

    ख़्वाजा रुकनुद्दीन ’इश्क़ का जन्म 1137 हिज्री को दिल्ली में उनकी ननिहाल में हुआ था। आपकी माँ ’इस्मत-उन-निसा ’उर्फ़ बूबू, मशहूर सूफ़ी हज़रत शाह मोहम्मद फ़रहाद अबुलउलाई की बेटी थीं। ख़्वाजा फ़रहाद, हज़रत सैय्यदना अमीर अबुलउलाई के ख़लीफ़ा हज़रत दोस्त मोहम्मद के मुरीद-ओ-ख़लीफ़ा थे। बिहार और बंगाल में सिलसिला-ए-अबुलउलाईया की पहचान आप ही के ज़रिए है। आपके पिता हज़रत ’उमर फ़ारूक़ की औलाद में से थे। उनका नाम शैख़ मोहम्मद करीम फ़ारूक़ी बिन शैख़ तुफ़ैल ’अली था।

    इनका नाम ख़्वाजा रुकनुद्दीन, लक़ब मिर्ज़ा और तख़ल्लुस ’इश्क़ था। इन्हें ‘घसीटा’ नाम से भी पुकारा जाता है। आपके नाम से जुड़ा हुआ लफ़्ज़ “मिर्ज़ा” नाना की वजह से जुड़ा है, जिसको फ़क़ीरी की शान कहा जाता है।रुकनुद्दीन इश्क़ ख़ुद अपने एक शे’र में कहते हैं कि।

    ख़िताब आता है तुझ को हर-दम ’इश्क़

    मुबारक हो तुझे ये मिर्ज़ाई

    इनकी शुरू’आती शिक्षा अपने नाना की निगरानी में हुई, जो दिल्ली के सूफ़ी ख़ानदान से त’अल्लुक़ रखते थे। उनके नाना की दिल्ली में ख़ूब आव-भगत थी। जब दुर्रानियों के हमले ने दिल्ली को तबाह-ओ-बर्बाद कर दिया, तो बहुत से लोग उस हरज-ओ-मरज के बीच दिल्ली छोड़ने पर मजबूर हुए। ख़्वाजा रूकनुद्दीन इश्क़ भी हमले के बा’द शाहजहानाबाद की तरफ़ गए और बाद में शाहजहानाबाद से मुर्शिदाबाद चले गए। मुर्शिदाबाद में उन्होंने मुद्दत तक ख़्वाजा मोहम्मदी ख़ाँ के साथ ज़िंदगी गुज़ारी। मुर्शिदाबाद के राजा उनकी काफ़ी ’इज़्ज़त करते थे और कोई काम भी उनसे करवाते थे। कुछ अदीबों के मुताबिक आप मुर्शिदाबाद में नौकरी करते थे। ये भी हो सकता है कि आप ने कुछ वक़्त तक नौकरी की हो, लेकिन ये रिवायत बिल्कुल ठीक नहीं है कि आप मीर क़ासिम की फ़ौज के सिपह-सालार थे या बहैसियत मुलाज़िम काम करते थे, क्योंकि मीर क़ासिम को सन् 1764 में ही शुजा’उद्दौला से वा’दा-ख़िलाफ़ी करने पर किसी अनजान जगह क़ैद कर दिया गया था।

    उन्होंने कुछ दिनों तक मुलाज़िमत की, मगर फिर दिल में ’इश्क़-ए-हक़ीक़ी की आग लगी और पीर की संगत का जज़्बा पैदा हुआ। जिसके चलते वो दुनिया से दूर हो गए। शुरू’-शुरू’ में उनकी तबी’अत नक़्शबंदिया मुजद्दिदिया की तरफ़ लगी। जिस के बा’द शौक़ उठा कि अपने नाना के सिलसिले से वाबस्ता हो जाएँ। एक दफ़ा ‘हज़रत शाह बुरहानुद्दीन ख़ुदा-नुमा’ जो फ़िक़्ह और उसूल-ए-फ़िक़ा के लिए दिल्ली में मशहूर थे। उन्होंने एक महफ़िल में आपको तवज्जो दी और सिर्फ़ उसी तवज्जो के ज़रिए आपके नक़्शबंदिया मुजद्दिदिया की जानिब मैलान को खींच लिया और रुकनुद्दीन इश्क़ से फ़रमाया कि ख़ानदानी तरीक़ा हासिल फ़रमाओ। चुनाँचे रुकनुद्दीन इश्क़ मुद्दत तक उनकी संगत में ही रहे और बाद में दिल्ली से पूरब की ओर चल दिए।

    उसी नौकरी के सिलसिले में दिल्ली से पटना आए और जब हज़रत मख़दूम मुनएम पाक की शोहरत सुनी तो आपकी ख़िदमत में हाज़िर हुए। जब उन्होने मुनएम पाक से बात-चीत की, तो मा’लूम हुआ कि मख़दूम मुनएम पाक आपके नाना से फ़ैज़ पाते थे। इसी सबब पर रुकनुद्दीन इश्क उनके फ़ैज़ से कामिल हुए और पूरा छः महीने उनकी सोहबत में रहे। एक दूसरी रिवायत के हिसाब से वो बारह बरस तक मुनएम पाक से फ़ैज़ पाते रहे। मख़दूम मुनएम पाक ने आपका उस तरह एहतिराम किया जैसा कि पीर-ज़ादों का किया जाता हैं। छः महीने तक आप मख़दूम मुनएम पाक के हल्क़े में बैठे और उस के बाद ग्वालियर चले आए। उनकी क़ाबिलियत को देखकर ‘हज़रत शाह बुरहानुद्दीन ख़ुदा-नुमा’ ने उन्हें इजाज़त-ओ-ख़िलाफ़त से नवाज़ा और अपना उतराधिकारी बनाया। जिसके बाद वो दोबारा पटना वापस चले आए। पटना इस क़दर उनको पसंद आया कि इस शहर को मुस्तक़िल तौर पर अपना ठिकाना बना लिया। उनको मख़दूम मुनएम पाक से भी इजाज़त-ओ-खिलाफ़त हासिल थी। ख़्वाजा ’इश्क़ को हज़रत उमर फ़ारूक़, हज़रत मौला अली, हज़रत जलालुद्दीन रूमी और हज़रत शैख़ शर्फ़ुद्दीन अहमद यहया मनेरी से फ़ैज़ हासिल था। रुकनुद्दीन इश्क़ मौलाना रूमी की मस्नवी का बेहतरीन दर्स देते थे। हज़रत यहया मनेरी की शान में लिखी उनकी एक मनक़बत काफ़ी मशहूर है।

    बरतर है मिरी फ़िक्र से वो ज़ात है तेरी

    करता हूँ अदब से तिरी ख़िदमत में दिलेरी

    दरवाज़े का तेरे हूँ गदा भीक दे मेरी

    महरूम कर मेरी तू है साल की फेरी

    या शाह-ए-शरफ़ अहमद-ए-यहया-ए-मनेरी

    मख़दूम मुनएम पाक की कहने से रुकनुद्दीन इश्क़ मस्जिद में रहने लगे। मस्जिद के उत्तर में (जहाँ अब बारगाह-ए-इश्क़ है) किसी नवाब का मकान था। उस की महफ़िल-ए-निशात में हू-हक़ की आवाज़ ने ख़लल-अंदाज़ी की, तो उस नवाब रुकनुद्दीन इश्क़ से कहलवाया कि मियाँ साहब यहाँ से रास्ता लो, आपकी हू-हक़ से हमारे ऐश में ख़लल पड़ता है। तारीख़ गवाह है कि एक सच्चे फ़क़ीर ने अपनी बेलौसी और सैर-चश्मी के आगे कभी किसी की शान-ए-इमारत या ऊंची आवाज़ की भूले भी परवाह नहीं की है। उन्होंने ये सुनते ही फ़रमाया कि जिस तरह नवाब साहब को ये बात ख़ुद यहाँ आकर कहनी मुश्किल थी, उसी तरह ख़ुदा के लिए नवाब साहब को भी हटा देना कोई मुश्किल काम नहीं। फ़क़ीरों की बद-दु’आ कहिए या हुस्न-ए-इत्तिफ़ाक़, दूसरे ही दिन सवेरे शाही परवाना आया। जिसकी ता’मील हुई और नवाब साहब का मकान नीलाम हो गया। नीलामी में नवाब अहमद अली ख़ाँ ने उसे ख़रीद लिया। अहमद अली ख़ाँ, नवाब सरफ़राज़ हुसैन ख़ाँ के परदादा और सूबेदार थे। शाम को नवाब अहमद अली ख़ाँ अपने नौकरों के साथ हाज़िर हो कर मुरीद हुए और वही मकान आपको तोहफ़े में पेश किया। तब ख़्वाजा ’इश्क़ दोबारा उसी मकान में लौट आए और उन्होंने एक ख़ानक़ाह बनाने का ख़्याल ज़ाहिर किया। लोगों ने कहा कि हुज़ूर रुपये नहीं हैं, ख़ानक़ाह बनाने के लिए रुपये कहाँ से आएंगे। आपने फ़रमाया कि ख़ुदा मालिक है और चंद ईंटें जमा कीं, ख़ुद से गलाबा किया और अपने हाथों से ख़ानकाह की बुनियाद डाल दी। दूसरे ही दिन कोई दुनिया-दार आया और आपकी दुआ से उस का काम पूरा हो गया। उस के इंतिज़ाम ने आपकी ख़ानक़ाह बनवा दी। ख़्वाजा रुकनुद्दीन इश्क़ ख़ुद मज़दूरों के साथ काम करते थे और हर छोटे से छोटे काम में भी ख़ुद हिस्सा लेते थे। इस तरह बारगाह-ए-’इश्क़ तैय्यार हुई।

    ख़्वाजा रुकनुद्दीन ’इश्क़ ने अपनी ज़िंदगी में सूफ़ी साहित्य और ख़ानक़ाही तरीक़े का पूरा-पूरा ख़याल रखा। सूफ़ीवाद में रूचि रखने वालों को वो रूहानी शिक्षा और ज़िक्र-ओ-फ़िक्र के ’अलावा, बराबर मौलाना जलालुद्दीन रूमी की मस्नवी का दर्स देते थे। उनकी मज्लिस में पटना के उलेमा, सूफ़िया और बड़े-बड़े लोग जमा’ होते थे। ख़्वाजा रुकनुद्दीन इश्क़, अपने गुरु का ’उर्स बड़ी पाबंदी से करते थे। इश्क़ की मज्लिस बड़ी पुर-जोश और ज़िंदा-दिल होती थी। बारगाह-ए-’इश्क़ में सिर्फ़ पटना से ही नहीं, बल्कि पूरे भारत के बड़े-बड़े विद्वान लोग अक़ीदत से आते थे। जिनमें बीजा बाई, बनारस के महाराजा दौलत राव, नवाब-ए-ढाका और बहुत सारे नवाब भी शामिल थे।

    आपके ख़ास मुरीदों के नाम ये हैं:

    नवाब अहमद अली ख़ाँ (गया), ख़्वाजा मोहतरम अली ख़ाँ, ख़्वाजा अली आज़म ख़ाँ हाजी, ख़्वाजा आसिम ख़ाँ, ख़्वाजा मुकर्रम ख़ाँ हरीफ़, नवाब क़ासिम अली ख़ाँ, नवाब साअदुल्लाह ख़ाँ ’आशिक़’, शैख़ ग़ुलाम अली रासिख़, शोरिश अज़ीमाबादी और फ़िदवी अज़ीमाबादी अदि।

    आपके प्रसिद्ध ख़लीफ़ाओं के नाम ये हैं:

    ख़्वाजा अबुल बरकात अबुल’उलाई (मीतन घाट), मौलाना अब्दुर्रहमान (शेर घाटी, गया), सैय्यद कबीर ’अली ’उर्फ़ दानिश (पटना सिटी), मीर मोहम्मद ’अस्करी (मीतन घाट), ख़्वाजा हैदर जान (पटना सीटी), शाह ’अली अहमद (बिहार शरीफ़), शाह नुसरतुल्लाह (बनारस), शाह ’अली मोहम्मद (बनारस), पीर मोहम्मद मज्ज़ूब, शाह मोहम्मद वासिल मज्ज़ूब।

    ख़्वाजा रुकनुद्दीन ’इश्क़ ने दो शादियाँ कीं थी। पहली शादी ख़्वाजा मोहम्मदी ख़ाँ के किसी अज़ीज़ की ख़ादिमा से हुई थी। जिन से एक बेटे साईं जी हुए। साईं जी की आपकी ज़िंदगी में ही वफ़ात हो गई। दूसरी शादी हज़रत बुरहानुद्दीन की बड़ी बेटी से हुई थी, जिनसे दो बेटे और एक बेटी हुई। बड़े बेटे का नाम शाह अहमद हुसैन उर्फ़ छोटे हज़रत था, जो ख़्वाजा अबुल बरकात के ख़लीफ़ा थे। उनका इंतिक़ाल सन् 1821 में हो गया। छोटे बेटे का नाम शाह मोहम्मद हुसैन था, जो ’इश्क़ की वफ़ात के तेरह बरस बा’द इंतिक़ाल कर गए। उनकी बेटी की शादी ख़्वाजा मोहसिन अली से हुई, जिनसे ख़्वाजा लुत्फ़ अली पैदा हुए। इन्हीं ख़्वाजा लुत्फ़ अली ने बारगाह-ए-’इश्क़ में नई ता’मीर कराई और सज्जादा-नशीं हुए। आप ही के वंश में यहाँ की सज्जाद-गी चली रही है और मौजूदा सज्जादा-नशीं ख़्वाजा आमिर शाहिद नक़्शबंदी हैं। ख़ुदा उनको और उनके भाई ख़्वाजा तमीम ’इश्क़ी को अपनी रहमत के साए में रखे।

    ख़्वाजा इश्क़ की सूरत ऐसी थी कि उन्हें देखकर आदमी मंत्र-मुग्ध हो जाया करते थे। और अंदर के हाल का कहना ही क्या। उन्हें भीड़ से नफ़रत और तन्हाई से रग़्बत थी। यूँ कहा जा सकता है कि आप हर तरह से अख़लाक़ी पहलूओं में सबसे ज़्यादा नुमायाँ थे। दोस्त और दुश्मन, सभी पर आपकी नज़र एक समान रहती। रात-ओ-दिन नेकी और भलाई का ज्ञान बाँटने के बावजूद आपने चंद यादगार किताबें लिखीं, जिन में दीवान और कई मस्नवियात, साक़ी-नामा, सुल्तानुल-’इश्क़, ता’लीम-उल-ख़ुलफ़ा, तज़्किरातुल औलिया, मक्तूबात, शरह-ए-मस्नवी और अम्वाज-उल-बुहार फ़ी-सिर्रुल-अनहार आदि का नाम लिया जा सकता है। आपके उपदेश को भी शोरिश ’अज़ीमाबादी ने जमा’ किया था, लेकिन अब ये नायाब है।

    आपका विसाल 8 जुमादिउल अव्वल 1203 हिज्री (1788 ’ईसवी) में हुआ और उनका मज़ार बारगाह-ए-इश्क़ मौजूद है। हर साल इसी तारीख़ को बड़े धूम-धाम से उनका उर्स मनाया जाता है।

    हुआ लबरेज़ पैमाना हमाराerror

    सलामत रखे हक़ इस अंजुमन को

    (इश्क़)

    ये बात गौर-तलब है कि रुकनुद्दीन इश्क़ अपनी शाइरी से आज तक लोगों में ज़िंदा हैं। शाइराना ख़ुसूसियात के साथ उनकी शाइरी में सूफ़ियाना और वालिहाना शा’इरी का एक अलग रंग है। ख़्वाजा मोहम्मदी ख़ाँ के बेटों की संगत ने जवानी ही से शा’इरी का शौक़ आपके अंदर पैदा करा दिया। नीचे ख़्वाजा ’इश्क़ की एक ग़ज़ल पढ़िए और उस का लुत्फ़ लीजिए-

    उस के चेहरे पे ख़ुदा जाने ये कैसा नूर था

    वर्ना ये दीवानगी कब इ'श्क़ का दस्तूर था

    सुर्मा-ए-वह्दत जो खींचा इ'श्क़ ने आँखों के बीच

    जौन सा पत्थर नज़र आया वो कोह-ए-तूर था

    पास आने को मेरे बा'द मसाफ़त कुछ थी

    ग़ौर कर देखा तो मैं ही दिल से तेरे दूर था

    लग गया नागाह उस पर ये तेरा तीर-ए-निगाह

    दिल का शीशा जो बग़ल में हम ने देखा चूर था

    दिल को तेरे दुख दिया है 'इ’श्क़' कुन ने हम से कह

    शोख़ था बे-बाक था ख़ूँ-ख़्वार था मग़रूर था

    एक रुबा’ई और एक शे’र और मुलाहिज़ा कीजिए और ’इश्क़ के ’इश्क़ में फ़ना हो कर, बक़ा हो जाईए-

    कोई बुत कहते हैं कोई ख़ुदा कहते हैं

    हम से जो पूछो तो दोनों से जुदा कहते हैं

    दिल के देने के बराबर कोई तक़्सीर नहीं

    जो मुझे कहते हैं सो यारो बजा कहते हैं

    शेर

    बात करने की नहीं ताक़त शिकायत क्या करूँ

    ’इश्क़ रुख़्सत दे तो शोर-ए-हश्र अब बरपा करूँ

    ख़्वाजा रुकनुद्दीन ’इश्क़ शा’इर थे, मगर रिवायती-ओ-रस्मी नहीं बल्कि हक़ीक़ी-ओ-फ़ितरी शाइर थे। उनके कलाम में ’इश्क़-ए-हक़ीक़ी और रंग-ए-मजाज़ी का निहायत ही दिल-कश इम्तिज़ाज पाया जाता है। वो मजाज़-ओ-तग़ज़्ज़ुल के पर्दों में ख़ुदा से हम-कलाम होते हैं औऱ उस के तग़ाफ़ुल के शिकवे के साथ-साथ अपनी महरूमी-ओ-महजूरी का इज़हार बड़े पुर-कैफ़, पुर-सोज़, दर्द-नाक और बे-साख़्ता अंदाज़ में करते हैं। दिल में पिन्हाँ ये शोरिश उन्हें चैन नहीं लेने देती, जैसे दर्द-मंदी-ओ-सोख़्ता-सामानी उनकी तक़्दीर बन गई हो।

    हूँ सोख़्ता-दिल फ़िक्र कोई ताज़ा नहीं है

    इक मिस्रा’-ए-बरजस्ता मिरी आह-ए-हज़ीं है

    शेर

    अपनी तो दर्द-ओ-ग़म ही में गुज़री तमाम ’उम्र

    क्या जाने शाद कौन था ना-शाद कौन था

    उनके कलाम का यही हुस्निया रंग ’इश्क़ और मीर में मुमासिलत पैदा कर देता है। मानों दोनों की उफ़्ताद-ए-तबी’अत में बादल साझीदार हो। लेकिन मीर का महबूब मजाज़ी है, गोश्त और पोस्त का बना हुआ, उन्हीं जैसा एक इन्सान जो उनका हम-दम-ओ-हम-पल्ला है। जिससे इज़हार-ए-मोहब्बत में उन्हें झिझक महसूस होती। लेकिन ख़्वाजा रुकनुद्दीन इश्क़ का महबूब मजाज़ी नहीं हक़ीक़ी है। वो महबूब उमूमी नहीं ख़ुसूसी है और इन्सान नहीं ख़ुदा है। उनके यहाँ प्रेम और प्रेमी के बीच एक ऐसी लकीर है, जिसे मलहूज़ रखना होगा। उनकी शाइरी में एक दावर-ए-अदब है जिस से तजावुज़ मुम्किन नहीं। कूचा-ए-महबूब की हेरा-फेरी से तंग आकर मीर कहते हैं कि-

    तुम्हारे पाँव घर जाने को ’आशिक़ के नहीं उठते

    तुम आओ तो तुम्हें आँखों पे सर पर अपने जा देवे

    लेकिन रुकनुद्दीन इश्क़ की इतनी मजाल कहाँ, वो तो मा’शूक़ के इशारे पर चलने के आदी हैं।

    ग़लत है इधर या उधर जाएंगे

    जिधर तुम चलोगे उधर जाएंगे

    मीर अपने मा’शूक़ की बे-इल्तिफ़ाती से जल कर किसी और से दिल लगाने की धमकी देते हैं।

    तुमको तो इल्तिफ़ात नहीं हाल-ए-ज़ार पर

    अब हम मिलेंगे और कसू मेहरबान से

    लेकिन इधर ख़्वाजा रुकनुद्दीन इश्क़ का बाँधा हुआ पैमान-ए-वफ़ा, ता-दम-ए-मर्ग नहीं टूट सकता।

    ता-ज़िंदगी तो मेरे महबूब ही रहे तुम

    मेहमाँ हूँ कोई दम का इतना हिजाब क्या

    जहाँ एक तरफ़ महबूब की गालियाँ मीर को बद-मज़ा कर देती हैं और वो उस को बे-दिमाग़ कहने से नहीं चूकते।

    दीं गालियाँ उन्हीं ने वही बे-दिमाग़ हैं

    मैं मीर कुछ कहा नहीं अपनी ज़बान से

    ’वहीं सूफ़ी रुकनुद्दीन इश्क़ ऐसी गालियों के जवाब में सिर्फ दु’आ देते हैं, जो कि एक सूफ़ी ही कर सकता है।

    ’इश्क़-बाज़ी में इवज़ है पर जुदा हैं रस्म से

    हम दु’आ देते हैं दिल से ये तिरी दुश्नाम सुन

    ख़्वाजा रुकनुद्दीन ’इश्क़ की ग़ज़लें अपनी सादगी और सफ़ाई, रवानी और बरजस्तगी, नज़ाकत और लताफ़त, कैफ़ और मस्ती, सोज़-ओ-गुदाज़, हसरत-ओ- ना-कामी, उदासी और ग़म-गीनी में ख़्वाजा मीर दर्द की ग़ज़लों की बराबरी करती हैं। सबको मालूम है कि ख़्वाजा मीर दर्द की ज़िंदगी और शा’इरी तसव्वुफ़ की छाँव में परवान चढ़ी। इसलिए उन्हें इस सिन्फ़ का बेहतरीन उस्ताद माना जाता हैं। सूफ़ी नकात के साथ साथ दर्द-ओ-ग़म और रंज-ओ-अलम की तर्जुमानी और अक्कासी ख़्वाजा मीर दर्द की पहचान हैं। यही कैफ़ियत रुकनुद्दीन इश्क़ की भी है। उनका कलाम भी सूफ़ियाना नकात का मज़हर है और दर्द तासीर से भरा हुआ है। इश्क़ अपने कलाम की असर-आफ़रीनी का सबब जानते हैं।

    तासीर हो क़ौल में किस तर्ह से मेरे

    तुम जिस को असर कहते हो मैं उस का बयाँ हूँ

    ٭٭٭

    आह-ओ-नाला ’इश्क़ का मौज़ूँ हुआ

    शे’र कहने को महारत चाहिए

    ٭٭٭

    ख़्वाजा रुकनुद्दीन इश्क़ ख़्वाजा मीर दर्द के हम-तर्ह भी हैं और हम-ख़्याल भी।

    ख़्वाजा मीर दर्द कहते हैं कि,

    “अर्ज़-ओ-समा कहाँ तिरी वुस्’अत को पा सके

    मेरा ही दिल है वो कि जहाँ तू समा सके”

    वहीं ख़्वाजा रुकनुद्दीन ’इश्क़ कहते हैं कि,

    “अर्श और फ़र्श में गो वो समावे ’आशिक़

    दिल में रखते हैं उसे और कहाँ रखते हैं”

    मीर दर्द कहते हैं कि,

    “शरर-ओ-बर्क़ की सी भी नहीं याँ फ़ुर्सत-ए-हस्ती

    फ़लक ने हम को सौंपा काम जो कुछ था शिताबी का”

    रुकनुद्दीन इश्क़ कहते हैं कि,

    “आह-ए-शबनम हैं या सबा हैं हम

    देखते-देखते हवा हैं हम”

    ख़्वाजा मीर दर्द कहते हैं कि,

    “जग में आकर इधर उधर देखा

    तू ही आया नज़र जिधर देखा”

    इश्क़ कहते हैं कि

    “अर्श ता-फ़र्श सैर कर देखा

    जल्वा-गर तू हुआ जिधर देखा”

    फ़िदवी, इश्क़ के ही शागिर्द थे, इसलिए उन्होंने भी अपने उस्ताद की हम-तर्ह ग़ज़लें कही हैं। फ़िदवी कहते हैं कि,

    “ग़म्माज़ होवे गो लब-ए-ख़ामोश नक़्श-ए-पा

    रखता हूँ सैल-ए-अशक निशाँ-पोश नक़्श-ए-पा”

    ’इश्क़ कहते हैं कि,

    “इतना मिरी मज़ार पे है जोश-ए-नक़्श-ए-पा

    जो ख़ाक हो गया है तन-ओ-तोश-ए-नक़्श-ए-पा”

    रुकनुद्दीन इश्क़ ने अपनी ग़ज़लों में हर क़िस्म की बहर इस्ति’माल की है। उनकी छोटी बहर की ग़ज़लों में सलासत, रवानी और नश्तरियत ज़्यादा है। उनमें बंदिश की चुस्ती भी नुमायाँ होती है। वहीं उनकी लम्बी बहरों की ग़ज़लों की रवानी कम है, मगर उनमें दिल-कशी और ग़िनाई कैफ़ियत ज़्यादा है। उन्होंने अक्सर ग़ज़लें संगलाख़ ज़मीन में लिखी हैं, जिनमें ना-मानूस क़ाफ़िए और रदीफ़ का नमूना मिलता है। उनकी कुछ ग़ज़लों के अश’आर में दाख़िली रब्त-ओ-तसलसुल पाया जाता है। मिसाल देखें-

    चश्म-ए-बद-दूर यार रखते हैं

    एक मिस्ल हज़ार रखते हैं

    ....

    ’इश्क़ का मैं पिया हूँ जाम ’अक़्ल कहाँ और मैं कहाँ

    दूर हुआ है नंग-ओ-नाम ’अक़्ल कहाँ और मैं कहाँ

    ....

    ग़ुन्चा में गो हज़ार हुआ रंग और नमक

    मुँह देखो उस का ऐसा दहाँ तंग और नमक

    ...

    मरने से अगर मिले तो मर चुक

    अरमाँ रहे ये भी कर चुक

    ...

    तुम सा ही कोई तुम को कहीं क्या नज़र आया

    जो इन दिनों आँखों में ये लख़्त-ए-जिगर आया

    ’इश्क़ के यहाँ शो’रा-ए-देहली के रिवायती ’आशिक़ाना मज़ामीन की कमी नहीं है, मगर इस रिवायत में भी उनकी इन्फ़िरादियत जल्वा-गर होती है। वो ख़ुदा से जब पर्दा-ए-मजाज़ में सरगोशियाँ करते हैं, तो उनकी आवाज़ दर्द की आवाज़ से बहुत मिलती है। ऐसा हो भी क्यों ना आख़िर ’इश्क़ भी पैदाइशी देहलवी हैं। कशिश-ए-हुस्न के बारे में वो कहते हैं कि-

    ये हुस्न ये अदा ये निगाहें ये गर्मियाँ

    नाम-ए-ख़ुदा कहाँ हैं किसी तर्ह-दार में

    रुकनुद्दीन इश्क़ जब सोख़्ता-सामानी के बारे में कहते हैं, तो यूँ बोलते हैं-

    जब धुआँ दिल से यार उठता है

    आसमाँ तक ग़ुबार उठता है

    वही जब अपनी शाइरी में दम-ए-आख़िरी का ज़िक्र करते हैं, तो यूँ होता है-

    हिलते थे होंट उस के वक़्त-ए-अख़ीर देखा

    ले ही गया ये हसरत-ए-दीदार तक पहुँचा

    उनकी शाइरी में शिद्दत-ए-इंतिज़ार के रंग का नमूना देखिए-

    आँखें पथराई मिस्ल-ए-आईना

    क्या कहूँ इंतिज़ार की सूरत

    ’इश्क़ की शाइरी का अस्ल रंग देखने के लिए उनके सूफ़ियाना कलाम देखे जाने चाहिए। जहाँ वो तसव्वुफ़ के पेचीदा मसाइलों को शा’इर के हुस्न-ए-बयाँ और रंगीनी-ए-तख़य्युल से जोड़ कर बला का असर-आफ़रीं-ओ-दिल-नशीं बना गए हैं। इस रंग में भी ’इश्क़, मीर दर्द के हम-नवा नज़र आते हैं।

    रुकनुद्दीन इश्क़ के नज़दीक ’इश्क़-ए-हक़ीक़ी’ कायनात की सबसे बड़ी क़ुव्वत-ओ-मेहर है। उनके हिसाब से दुनिया में जो तवाज़ुन नज़र आता है, वो उसी का करिश्मा है, सब उसी के असीर हैं और वो कहते हैं कि दिल-ए-दाग़दार के बग़ैर हश्र में भी रुसवाई होगी। इश्क़ कहते हैं कि आसमान से ज़मीन तक और शुरू से आख़िर तक उस इश्क़-ए-हक़ीक़ी का डंका बजता रहता है।

    कब ज़बां पर सके है राज़-ए-इश्क़

    गोश-ए-दिल में आती है आवाज़-ए-’इश्क़

    इश्क़ की ग़ज़लों में दाख़िली ख़ूबियों के साथ-साथ ख़ारिजी ख़ूबसूरती भी मौजूद हैं। फ़न्नी और लिसानी ’ऐतिबार से उन्होंने शो’रा-ए-देहली का पूरा-पूरा इत्तिबाअ किया है। ’इश्क़ ने तसव्वुफ़ के भारी-भरकम मसाइलों को बड़ी रवानी और चाबुक-दस्ती के साथ ’इश्क़-ए-मजाज़ी के सीने में ढाल दिया है।

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