दाता गंज-बख़्श शैख़ अ'ली हुज्वेरी
रोचक तथ्य
خم خانۂ تصوف، باب 1
दाता गंज-बख़्श शैख़ अ'ली हुज्वेरी सुल्तानुत्तरीक़त, गंज-ए-हक़ीक़त और बुर्हानुश्शरी’अत हैं।
ख़ानदानी हालात:
आप सादात-ए-हसनी से हैं। आपका सिलसिला-ए-नसब चंद वासतों से हज़रत सय्यदना ज़ैद शहीद इब्न-ए-अमीरुल-मोमिनीन हज़रत सय्यदना इमाम हसन पर मुंतही होता है। आपके आबा-ओ-अज्दाद गज़नी के रहने वाले थे। आपके दादा का नाम हज़रत ’अली है।
वालिद-ए-माजिद: आपके वालिद-ए-माजिद का नाम ’उस्मान है।
विलादत: आप गज़नी में पैदा हुए।
नाम :आपका नाम ’अली है। हुज्वेर शहर का नाम नहीं है। बल्कि गज़नी के एक मुहल्ले का नाम है। इसलिए आप ’अली हुज्वेरी कहलाते हैं
कुन्नियतः आपकी कुन्नियत ’अबुल-हसन है।
लक़ब: आप दाता-गंज बख़्श के लक़ब से पुकारे जाते हैं।
लक़ब की वज्ह-ए-तस्मिया :ख़्वाजा-ए-ख़्वाज-गान हज़रत ख़्वाजा मु’ईनुद्दीन हसन चिश्ती संजरी जब लाहौर में रौनक़-अफ़रोज़ हुए तो आपके मज़ार-ए-मुबारक पर ए’तिकाफ़ फ़रमाया। चलते वक़्त हज़रत ख़्वाजा ग़रीब-नवाज़ ने हस्ब-ज़ैल शे’र पढ़ा।
गंज-बख़्श-ए-फ़ैज़-ए-’आलम मज़्हर-ए-नूर-ए-ख़ुदा।
नाकिसाँ रा पीर-ए-कामिल कामिलाँ रा रहनुमा
उस रोज़ से आप दाता-गंज बख़्श मशहूर हुए। बा’ज़ लोग तो आपको गंज-बख़्श के लक़ब से पुकारा करते हैं।
ता’लीम-ओ-तर्बियत: आप ’उलूम-ए-ज़ाहिरी की तहसील से फ़ारिग़ हो कर ’उलूम-ए-बातिनी की तरफ़ मुतवज्जेह हुए। आपके उस्ताद शैख़ अबुल-क़ासिम आप से फ़रमाते थे किः
“फ़क़ीर के लिए हाज़री-ए-मुर्शिद से बेहतर और कोई चीज़ नहीं है। फ़क़ीर को चाहिए कि हाज़िरी-ए-मुर्शिद की तमन्ना रखे। मुर्शिद वो होता है जो कि ग़व्वास हो न कि मुत्तसिल। फ़क़ीर को चाहिए कि अगर अपने में क़ुव्वत पाए तब बै’अत करे। और अपने में क़ुव्वत न हो तो दोनों ख़राब होंगे।
बै’अत-ओ-ख़िलाफ़त: आप शैख़ अबु-अल-फ़ज़्ल बिन हसन ख़तली के मुरीद हैं। वो मुरीद हज़रत ख़िज़्री के, और वो मुरीद हज़रत शैख़ शिबली के हैं।
सैर-ओ-सियाहतः आपने ख़ुरासान, मा-वराउन्नहर, मर्व, आज़र-बाईजान वग़ैरा की सैर-ओ-सियाहत फ़रमाई। बहुत से दरवेशों से मिले और बहुत सी बर्गुज़ीदा हस्तियों से इस्तिफ़ादा किया। हज़रत शैख़ अबु-अल-क़ासिम गुरगानी, हज़रत शैख़ अबू स’ईद अबुल-ख़ैर और हज़रत शैख़ अबु-अल-क़ासिम कुशैरी के रुहानी फ़ुयूज़ से मुस्तफ़ीद-ओ-मुस्तफ़ीज़ हुए।
पीर-ओ-मुर्शिद का हुक्मः आप अपने पीर-ओ-मुर्शिद के हुक्म से हिन्दुस्तान तशरीफ़ लाए। वाक़ि’आ इस तरह है कि आपने एक रात अपने पीर-ए-रौशन ज़मीर को ख़्वाब में देखा कि आप फ़रमाते हैं कि
“तुम को लाहौर का क़ुतुब बनाया गया है। लाहौर तुम्हारे सुपुर्द किया गया। लाहौर जाओ”
आप ने ख़्वाब ही में अपने पीर से ’अर्ज़ किया कि लाहौर में पहले से ख़्वाजा हसन ज़ंजानी मौजूद हैं। उनकी मौजूदगी में मेरा लाहौर जाना बेकार है।
आपके पीर-ओ-मुर्शिद ने आपको जवाब दिया कि बहस-ओ-मुबाहसा की ज़रूरत नहीं, देर नहीं लगाना चाहिए। जल्द रवाना होना चाहिए।
रवाँगीः हुक्म पाते ही लाहौर रवाना हुए। बा’ज़ लोगों का ख़याल है कि आप सुल्तान मस’ऊद बिन सुल्तान महमूद ग़ज़नवी के लश्कर के साथ हिन्दुस्तान तशरीफ़ लाए और बा’ज़ लोग इस से मुत्तफ़िक़ नहीं। उनका कहना है कि आप शैख़ अहमद जुमादी सर्ख़सी और शैख़ अबू स’ईद हुज्वेरी के हम-राह हिन्दुस्तान तशरीफ़ लाए।
नमाज़-ए-जनाज़ाः लाहौर में पहुंच कर रात हो जाने की वजह से आपने शहर से बाहर क़ियाम किया। सुब्ह को जब शहर में दाख़िल हुए तो एक जनाज़ा आते देखा। दरयाफ़्त करने पर आपको मा’लूम हुआ कि हज़रत शैख़ हसन ज़ंजानी का जनाज़ा है, जिनका गुज़िश्ता शब इंतिक़ाल हो गया। जनाज़ा की नमाज़ आपने पढ़ाई।
लाहौर में सुकूनतः अब आपको मा’लूम हुआ कि पीर-ओ-मुर्शिद के फ़रमान में क्या मस्लहत थी। आपने लाहौर में मुस्तक़िल सुकूनत इख़्तियार फ़रमाई और ता’लीम-ओ-तल्क़ीन और रुश्द-ओ-हिदायत में मश्ग़ूल हुए।
वफ़ातः आपने सन 465 हिज्री में इस जहान-ए-फ़ानी से सफ़र-ए-दारुल-आख़िरत फ़रमाया। बा’ज़ के नज़दीक आपका विसाल सन 456 हिज्री में हुआ। मज़ार-ए-पुर-आनवार लाहौर में फ़ुयूज़-ओ-बरकात का सर-चश्मा है।
सीरतः आप कुतुब-ए-ज़माना थे। ज़िक्र-ओ-फ़िक्र, मुराक़बा-ओ-मुहासबा और ’इबादत-ओ-रियाज़त में मश्ग़ूल रहते थे। दुनियावी आलाईश से पाक-ओ-साफ़ थे। आपकी ज़ात-ए-सतूदा सिफ़ात से बहुत से बंदगान-ए-ख़ुदा को फ़ैज़ पहुँचा है। तसर्रुफ़ात आपके बे-शुमार हैं।
’इल्मी ज़ौक़ः आप एक 'आलिम थे। आपने बहुत सी किताबें लिखी हैं। आपकी तसानीफ़ हस्ब-ए-ज़ैल हैं।
मिनहाजुद्दीन, किताबुल-बयान लि-अहलिल-अयान, असरारुल-ख़िरक़-वल-मुऊनात, कश्फ़ुल-असरार, अल-रि’आया-बि-हुक़ूक़िल्लाह, कश्फ़ुल-हुजूब
शे’र-ओ-शा’इरीः आप शा’इर भी थे। आपका तख़ल्लुस ’अली है। आप साहिब-ए-दीवान हैं। जैसा कि आप ख़ुद फ़रमाते हैं।
“मैंने बैत और अश्’आर बहुत से कहे हैं और एक दीवान भी कहा है।.... आपकी एक मशहूर ग़ज़ल हस्ब-ए-ज़ैल है।
ग़ज़ल
शौक़-ए-तू दर रोज़-ओ-शब दारम दिला
’इश्क़-ए-तू दारम ब-पिन्हान-ओ-मला
जाँ ब-ख़्वाहम दाद मन दर कू-ए-तू
गर मरा आज़ार आयद या बला
’इश्क़-ए-तू दारम मियान-ए-जान-ओ-दिल
मी-देहम अज़ ’इश्क़-ए-तू हर सू सला
या ख़ुदावंदा रक़ीबाँ रा ब-कुश
या मरा दर याद कुन मस्त-ए-वला
जाम-ए-मन दारद शराब-ए-यार ख़ुद
मेहरबाँ कुन बर मन-ओ-हम मुब्तला
ऐ चसाँ कज़ तू अगर ख़्वाहम लिक़ा
गर कुनी आरे म-कुन हरगिज़ तू ला
ऐ ’अली तू फ़र्रुख़ी दर शहर-ओ-कू
देह ज़े-‘इश्क़-ए-ख़्वेशतन हर-सू सिला
ता’लीमातः
आपकी ता’लीमात मा’रिफ़त का बेश-बहा ख़ज़ाना हैं।
नफ़्सानी ग़र्ज़ः आप फ़रमाते हैं:। जिस काम में नफ़्सानी ग़र्ज़ आ जाए उस से बरकत उठ जाती है। और दिल रास्ती और आज़ादी के रास्ते से निकल कर कजी और पाबंदी में पड़ जाता है और ये सूरत दो हाल से ख़ाली नहीं या तो नफ़्स की ग़र्ज़ पूरी होगी या न होगी।...
सूफ़ियों की सोहबतः आप फ़रमाते हैं: ۔۔۔ और जो कोई सूफ़ियों की सोहबत का इरादा करता है, वो चार मा’नों से बाहर नहीं होता। बा’ज़ को बातिन की सफ़ाई, दिल की रौशनी, तबी’अत की पाकीज़गी मिज़ाज का ए’तिदाल, नेक ख़स्लत की सोहबत उनके भेदों से दीदार देती है। ताकि तहक़ीक़ करने वालों का क़ुर्ब और उन की बुज़ुर्गी की बुलंदी देखें। उन के हाल की इब्तिदा अहवाल के कश्फ़, हिर्स से अलग होने और नफ़्स से मुँह फेर लेने पर होता है। और बा’ज़ दूसरों को बदन की बेहतरी, दिल का सुकून और पाकी और सहने की सलामती उनके ज़ाहिर से दीदार देती है ताकि शरी’अत के इख़्तियार करने और इस्लाम के अदबों को निगाह रखने और उनके ममु’आमलों की ख़ूबी को देखें।... और उनके हाल की इब्तिदा और मुजाहदा और मु’आमला की ख़ूबी पर होता है। और बा’ज़ दूसरों को इन्सान की मुरव्वत, आपस में मेल करने का तरीक़, ख़स्लत की ख़ूबी उनके फ़े’लों की तरफ़ रास्ता दिखलाती है। ताकि उनकी ज़िंदगी के ज़ाहिर को मुरव्वत से आरास्ता देखें। बड़ों के साथ ’इज़्ज़त से छोटों के साथ जवाँ-मर्दी से, अपने नज़्दीकों के साथ ख़ुशी से, ज़्यादा-तलबी से आसूदा और क़ना’अत पर आराम किया हो और उस से उनकी सोहबत का इरादा करें। और कोशिश और मेहनत और दुनिया के तलब करने का तरीक़ अपने पर आसान करें। और बा’ज़ दूसरों को तबी’अत की सुस्ती, नफ़्स की ख़ुदराई और सरकशी, अस्बाब के मौजूद होने के सिवा रियासत की ख़्वाहिश बुज़ुर्गों के बग़ैर सद्र-नशीनी का इरादा, बग़ैर ’इल्म के ख़ुसूसियत पाने की तलाश उनके फ़े’लों की तरफ़ रास्ता दिखलाती है, और समझते हैं कि उस ज़ाहिर के सिवा और कोई काम नहीं (पस) सूफ़ियों की सोहबत का इरादा करते हैं और वो ख़ल्क़ और करम से उस गिरोह के आदमियों की रि’आयत और ख़ुशामद करते हैं।....क्यूँकि उनके दिलों में हक़ की बात नहीं होती और तन्हाई में मुजाहदा करने से तरीक़त के तलब करने से कुछ नहीं होता। यही चाहते हैं कि लोग उनकी ऐसी ’इज़्ज़त करें जैसे मुहक़्क़िक़ों की, और ऐसी ’अज़्मत जैसे ख़ुदावन्दा-ता’ला के ख़ासों की। सूफ़ियों की सोहबत और त’अल्लुक़ से यही चाहते हैं कि अपनी आफ़तों को उनकी सलाह में छुपाएं और उनका जामा पहनें, ये जामा जो बग़ैर मु’आमला के होता है उनके झूट पर ज़ोर से पुकारता है कि ये फ़िक्र और ग़ुरूर का लिबास है और क़ियामत के दिन हसरत का बा’इस।....”
मुजाहिदा-ए-नफ़्स: आप फ़रमाते हैं “ रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु ’अलैहि वसल्लम ने नफ़्स के मुजाहदा को जिहाद पर बुज़ुर्ग रखा है क्यूँकि उस का रंज ज़्यादा होता है। वजह ये है कि नफ़्स का मुजाहदा हिर्स-ओ-हवा का दूर करना है।....”
फ़क़ीरः आप फ़रमाते हैं “फ़क़ीर को चाहिए कि बादशाहों-ओ-हाकिमों की आश्नाई-ओ-मा’रिफ़त को सख़्त ख़तरनाक साँपों और बड़े भारी अज़्दहाओं की मा’रिफ़त-ओ-आश्नाई समझे और जाने क्यूँकि जब बादशाह का तक़र्रुब फ़क़ीर को हासिल हुआ तो जाने कि उसका ज़ाद और तोशा बर्बाद हो गया।.... जब तुर्की टोपी तूने सर पर रख ली तो उस से कुछ फ़क़ीरी हासिल नहीं होती। और वहाँ काफ़िरों की टोपी सर पर रख ले और फ़क़ीर-ए-सादिक़ हो जा और जो कुछ अल्लाह तआ’ला की रज़ा हो उस पर मुस्तक़िल और क़ाइम रह।
दस चीज़ः आप फ़रमाते हैं
“एक बुज़ुर्ग का फ़र्मूदा है कि ये दस चीज़ें अपने मुक़ाबिल दस चीज़ों को खा लेती हैं।
अव़्वलः तौबा गुनाहों को खा जाती है।
दोउमः झूट रिज़्क़ को चट कर जाती है।
सेउमः ग़ीबत ’अमल को खा जाती है।
चहारुमः ग़म ’उम्र को खाकर कम कर देता है।
पंजुमः सदक़ा बला को खा कर दूर कर देता है।
शशुमः ग़ुस्सा ’अक़्ल को खा जाता है।
हफ़्तुम: पशेमानी सख़ावत को खा जाती है।
हश्तुमः तकब्बुर ’इल्म को खा लेता है।
नहुमः नेकी बदी को खा जाती है।
दहुमः ज़ुल्म ’अद्ल को खा जाता है।
आठ कलिमातः आप फ़रमाते हैं “लुक़्मान हकीम से मज़्कूर है कि मैं चार सौ पैग़म्बरों की ख़िदमत बजा लाया, और उनसे आठ हज़ार कलिमे मैंने हासिल किए। उनमें से आठ कलिमे मैंने ऐसे इंतख़ाब किए हैं कि उनसे तुझको ख़ुदा-शनासी हासिल हो, और वो आठ सुख़न ये हैं।
अव़्वल: जब तू नमाज़ में हो तो अपने दिल को निगाह रख।
दोउमः जमा’अत के साथ यार और रफ़ीक़ रह।
सेउमः जब किसी के घर जाए तो अपनी आँख को निगाह रख।
चहारुमः जब लोगों में आए तो अपनी ज़बान को निगाह रख।
पंजुमः ख़ुदा तआ’ला ’अज़्ज़-ओ-जल्ल को फ़रामोश मत कर।
शशुमः मौत को भुलाए मत रख।
हफ़्तुमः जब कि तूने किसी के हक़ में नेकी की हो तो उस को भूल जा
हश्तुमः जिसने तेरे हक़ में कोई बदी की हो उस को फ़रामोश कर दे।
अक़्वालः दौलत को एक ’अज़ाब जान और उसको अहल-ए-फ़ाक़ा लोगों को दे दे। और तसद्दुक़ कर, क्यूँकि आख़िर क़ब्र में कीड़े खाएँगे और अगर तूने ये बख़्शिश में देदी तो वो तेरे दोस्तदार रहेंगे।
तालिब को चाहिए कि ख़ुदी, ख़ुद-पसंदी, शोख़ी-ओ-तकब्बुर को छोड़ दे और उनको अपने वुजूद से बिल्कुल निकाल डाले।
मुब्तदी को चाहिए कि वो समाअ’ के नज़्दीक न जाए और उससे किनारा-कश रहे।
दुनिया एक कश्ती है जो कि पानी पर हो और मुल्क है जो बे-आब हो तो ग़व्वास ग़ोता-ख़ोर हो जाओ और ग़र्क़ हो जाने वाला मत हो।
दुनिया को बहुत ही अदना और ज़लील-ओ-हक़ीर जान।
तालिब ’उक़्बा का मत हो ’उक़्बा को ’उक़ूबत या’नी ’अज़ाब समझ। तालिब मौला का रहो क्यूँकि उस का तालिब मुज़क्किर और दाना और बहादुर होगा।
तालिब-ए-हक़ हो।
फ़क़ीरी मुश्किल है।
’इल्म पढ़, हिल्म सीख और ’अमल कर।
जो कुछ ख़ुदा तआ’ला ’इनायत करे उस पर राज़ी रह, और अगर वो बे-वतनी देवे तो उस पर क़ाने’ रह। जो कुछ ख़ुदा तआ’ला बख़्शिश करे उस पर शुक्र-गुज़ार हो। अगर गुदड़ी देवे तो उसको पहन ले। अगर लिबास-ए-पश्मीना देवे तो उसको मत फेंक दे और अगर सवारी को गधा देवे तो उस पर सवार हो, अगर घोड़ा बख़्शे तो उसको अपने से दूर मत कर। जो कुछ देवे ले-ले और जो कुछ वो न देवे उसपर सब्र कर ताकि तू राह का होवे और ताकि तू हक़ तक पहुँचे।
सब्र एक ’अजीब चीज़ है।
विर्द-ओ-वज़ीफ़ाः आप फ़रमाते हैं कि “अल्लाह तआ’ला के असमा-ए-हसना में से इस्म या-हबीबु और या-लतीफ़ु के मा’नों को अपने वुजूद में रख ले और उनको अपना विर्द बना ले”।
कश्फ़-ओ-करामात: लाहौर में सुकूनत इख़्तियार करने के बा’द आपने एक मस्जिद ता’मीर कराना शुरू’ की। मस्जिद की सम्त क़िब्ला-रू न होने की वजह से ’उलमा ने ’एतराज़ किया। आपने किसी के ’एतराज़ का जवाब न दिया। उस मस्जिद की मेहराब जुनूब की तरफ़ मा’लूम होती थी। मस्जिद की ता’मीर का काम होता रहा। जब मस्जिद बन कर तय्यार हो गई। आपने ’उलमा-ओ-मशाइख़ को बुलाया। सबने वहाँ नमाज़ पढ़ी, आपने इमामत फ़रमाई।
नमाज़ से फ़ारिग़ हो कर आपने हाज़िरीन से फ़रमाया कि ज़रा ग़ौर करें कि का’बा किस तरफ़ वाक़े’ है। आपने तवज्जोह फ़रमाई। हिजाबात उठ गए। सबने देखा कि का’बा सामने है और मस्जिद की सम्त सही है।
तर्क-ए-दुनिया गीर ता-सुल्ताँ शवी
वर्ना हम-चू चर्ख़ सरगर्दां शवी
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