मसनवी 'तुराब' दकनी
'तुराब' अब कर रक़म रंगींं-बयान-ए-ऊ
सुने जो ख़ल्क़ सारा दास्तान-ए-ऊ
इते ओ दास्तान कहता हूँ याराँ
होएगा ख़ल्क़ सब सुन अश्क-वाराँ
भई उस के काम है मालूम किस कूँ
अपस का भेद नई देता है किस कूँ
दिवाने को मियाना कर दिखाता
सियाने को दिवाना कर बताता
सुना हूँ गुलशन-आबाद एक नगर था
वहॉ एख मह-जबीं गुल-रू का घर था
निहायत हुस्न में अवतार थी ओ
कुल पंचार में खूँ-ख़्वार थी ओ
अथी यो पाक-दामन पारसा नार
नमाज़-ए-पंच-व़क्ता होर ज़िक्र चार
कभी नाग़ा नहीं करती थी अक्सर
चतुर सब औरत में थी बिचित्तर
ख़सम राज़ी रज़ा-मंद सब क़बीला
न जाने औरत का मक्र-ओ-हीला
अछे हिलमिल हमेशा ओ ख़सम सूँ
के ज्यूँ है आश्ना साबित-क़दम सूँ
कभी कोई नईं हुआ आज़ुदाँ-ख़ातिर
अथी ख़ुश-ख़ुल्क़ मू दिलबर वज़ाहर
जहाँ आवाज़ ना-महरम का आवे
वो तौबा कर वहाँ सूँ अटली जावे
ऊचा घुँघट न सारा मुँह को खोले
न बाताँ शोख़ मिल शोख़ियाँ सूँ बोले
व लेकिन सरोक़द नाज़ुक-बदन थी
सकल ख़ूबाँ मने जादू नयन थी
कमान अबरू निगाहे ख़ंजर पलक तीर
अदा सैफ़ दुधारा ज़ुलफ़ ज़ंजीर
सर पा नाज़नीन दिलदार दिल-बर
बला थी ज़ुल्म थी ज़ालिम सितमगर
कहाँ लग उस परी-रू को सराऊ
दिल आशिक़ मिरा कर क्यूँ जलाऊँ
गया था नौकरी को उस का ख़ाविन्द
अकेली घर में थी दिलदार दिल-बंद
हुए थे दिन जो कोई शातिर ना आया
ख़बर भी ख़ैरियत की कोई न लाया
पर उस नगर ओ गुल-बदन नार
कहीं मारे गया या ओ बीमार
कहे फिर दाई को ओ यूँ बुला कर
बुला बुला को दाई जल्द जा कर
भोत दिन सो नहीं आई ख़बर है
न जाने क्या सबब उन के ऊपर है
ओ अब लग नौकरी किस का किए नईं
जो घर की कुछ ख़बर हरगिज़ लिए नईं
या कई लश्कर में जा सपड़े हैं रन में
या कर्ई अटके हैं शौक़-ओ-राग-ओ-रंग में
या कोई सौतन ने दिल उन का बहलाई
या किस के जा हुए हैं घर जँवाई
भोत जादूगराँ राँडाँ वहाँ हैं
उनो जा कर रहे चाकर वहाँ हैं
मेरे बिन यक घड़ी रहता नहीं था
मेरे बिन बात कर्ई करता नहीं था
अता भेजा नई झूटी किताबत
किया है जा के शायद वहाँ की औरत
क्या तो ख़ूब है जीता रहे ओ
ख़बर आई तो उस की बस है देखो
सुनी यू बात सो दाई चली भार
बेचारी नार कूँ करने गिरफ़्तार
जहाँ पड़ते थे लड़के भोत से मिल
वहाँ बैठा था मुल्ला यक फ़ाज़िल
ले तस्बीह हात में करता ज़िक्र था
लगन के दर्द सूँ ओ बे-ख़बर था
रखे शमला चीरा बाधे मदूर
करे शानी-शरीअ'त काम अक्सर
सुनावे सब कतें मसला-मसाइल
करी तस्लीम जा कर उस को दाई
हक़ीक़त बोल ख़त लिखने बुलाई
सुना सो दाई सूँ मुल्ला ने यू बात
चला ले कर क़लम दावात सँगात
ख़बर बीबी को दे आया है मुल्ला
कहे बीबी उसे घर में बुला यहाँ
उनें बुत-घर में गोशा कर बुलाई
बिछौना करते पर्दे कन बिठाई
अपी बैठी सुंदर पर्दे के अंदर
बुला मुल्ला कूँ अपने घर भीतर
बिठा पर्दे कने मुल्ला बिचारा
सुनो बारी लगन का यक नज़ारा
गँवाया पारसा की पारसाई
किया ज़ोहद-ओ-रिया की जग-हँसाई
पूछा ले हात में मुल्ला ख़ामा
हक़ीक़त क्या लिखूँ सो वो नामा
देखा तो ओ परी रू झाकती थी
ग़ुरूर-ए-हुस्न में जियूँ मदमती थी
हुए एक बार जो चक चार दोनों
रहे हैरत सूँ हो लाचार दोनों
यकायक देख दीवाना हुआ तब
लगा कहने को बोलो क्या लिखूँ अब
कहे ओ नाज़नीं सब अपना अहवाल
न समजी ओ हुआ सो देख बेहाल
हक़ीक़त सब सुना बोली सो सुंदर
कहा भी क्या लिखूँ गर
कहे भी ओ परी-रू कर के तकरार
देखो फिर क्या लिखूँ बोला गिरफ़्तार
कही दो-चार बार उस कतें तब
समज के दिल मने दीवाना है तब
देखी तो कुछ भी पड़ता न लिखता
चुपी-चप क्या लिखो कह कर बिलखता
क़लम यक हात और यक हात क़िर्तास
बैठा हैरत-ज़दा पर्दे के है पास
कही तब दाई कू ग़ुस्से में आ कर
तू दीवाने कू क्यूँ लाई बुला कर
गया था काँ तेरा तब होश दाई
जो ऐसे मस्त दीवाने कूँ लाई
कही तब दाई मैं लाई थी स्याना
इता दिस्ता हुआ उजड़ा दिवाना
भला-चंगा सूँ मुल्ला ओ दिस्या तब
बिसर सब होश दीवाना हुआ अब
लगा अब के अभी में उस को शैतान
हुआ यक-बारगी बद-बख़्त मस्तान
हमारे शहर में था आ ई चे नामी
मोत आलम तो करता है ग़ुलामी
मुआ सब फ़ाज़िलों में ओ बड़ा है
न जानो क्या सबब उस पर खड़ा है
है सारे मुल्क में उस का पुकारा
जो करता ख़ूब है सदक़: उतारा
जहाँ लग भोत शैताँ व खबीसाँ
उतरते उस के ताबीज़ाँ सों यक साँ
मुए तलपट की सब सुन कर भलाई
मूँडी काटे को मैं लिखने बुलाई
मुए के जिव के गुन मैं जानती क्या
करेगा यो ककर पछानती क्या
कही तब दाई को दे उस को जाने
भोत आलम में हैं स्याने दिवाने
कही तब दाई मियाँ तुम भार जाओ
नको चुप क्या लिखूँ कर गुल मचाओ
बुला लेउँ तुम तो तब नईं थे दिवाने
भले चँगे दिसे तब मुजको सियाने
यकायक क्या हुआ मैं तुम पो वारी
बिसर कर अक़्ल का गई है तुमारी
बड़ फ़ाज़िल तुमें मुल्ला कला कर
भई किस अच्छर का पकड़ा तुम को छर
भला अब जाओ अपने घर को प्यारे
हुआ क्या तुम को मैं बारी तुमारे
बिसर शमला उठे कुमला के मुल्ला
रहा नईं याद तस्बीह और मुसल्ला
क़लम दावात उसी जागे सारा
उठा सो किया लिखूँ कर हाँका मारा
लगा जब इश्क़ का सैफ़ दुधारा
पडया आलम में उस का किया लिखूँ नाम
रहा हो कर ख़ाक-गोई गुलफ़ाम
नहीं हरगिज़ कहीं खाता था खाना
था फिरता किया लिखूँ करता दिवाना
सुने यू बात जो शागिर्द सारे
नंगे पावाँ चे दौड़े सब बिचारे
देखे उस्ताद कते कर क़दम-बोस
लगे मलने को सारे दस्ते अफ़्सोस
के ऐ साहब-ए-करम, फ़य्याज़-ए-आलम
ये ता किस पास जाना दर्स को हम
तुमे काँ गए थे ख़त लिखने की ख़ातिर
यकायक क्या घिरा तुमन पर
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