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ये किस के आस्ताने की ज़मीं मालूम होती है

अफ़क़र मोहानी

ये किस के आस्ताने की ज़मीं मालूम होती है

अफ़क़र मोहानी

MORE BYअफ़क़र मोहानी

    ये किस के आस्ताने की ज़मीं मालूम होती है

    कि जुम्बिश में मिरी लौह-ए-जबीं मालूम होती है

    दो-रंगी दैर-ओ-का'बः की नहीं मालूम होती है

    हक़ीक़त-आश्ना मेरी जबीं मालूम होती है

    मैं चाहूँ भी तो संग-ए-आस्ताँ से उठ नहीं सकता

    कि जुज़्व-ए-आस्ताँ अपनी जबीं मालूम होती है

    दवाँ हो कश्ती-ए-उम्र-ए-रवाँ यूँ बहर-ए-हस्ती में

    कहीं उभरी कहीं डूबी कहीं मालूम होती है

    ये इक बे-रब्त सी जामः-दरी और अपने ही हाथों

    जहाँ पहले था दामन आस्तीं मालूम होती है

    ये जल्वः-ज़ार-ए-दुनिया भी अजब आईनः-ख़ानः है

    कि हर तस्वीर हसरत-आफ़रीं मालूम होती है

    बताता गो हे जज़्ब-ए-शौक़ कोसों इश्क़ की मंज़िल

    मगर कहता है यूँ गोया यहीं मालूम होती है

    तजल्ली हुस्न-ए-जानाँ की नहीं मौक़ूफ़ ऐमन पर

    जहाँ महसूस करता हूँ वहीं मालूम होती है

    नज़र आते हैं जल्वे दो-जहाँ के उन की चौखट पर

    ख़ुदाई अब मिरे ज़ेर-ए-नगीं मालूम होती है

    उतर आया है नक़्शः आस्तान-ए-यार का 'अफ़्क़र'

    जबीन-ए-शौक़ अब मेरी जबीं मा'लूम होती है

    स्रोत :
    • पुस्तक : नज़रगाह (पृष्ठ 84)
    • रचनाकार : 'अफ़क़र' वारसी
    • प्रकाशन : सिद्दीक़ बुक डिपो, लख़नऊ (1961)

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