अगरचे मैं सैर-ए-बुताँ देखता हूँ
अगरचे मैं सैर-ए-बुताँ देखता हूँ
वले जल्वः-ए-हक़ अयाँ देखता हूँ
बने जिस तरह हक़-परस्ती हूँ करता
मगर ख़ुद-परस्ती ज़ियाँ देखता हूँ
जो रब्बुल-हरम है सनम भी वही है
हरम दैर मैं एक साँ देखता हूँ
इसे बिरहमन और उसे शैख़ मानें
ये आपस का झगड़ा यहाँ देखता हूँ
अज़ल से अबद तक जो कसरत है पैदा
सो वहदत का दरबार वाँ देखता हूँ
'नियाज़' अब कहूँ किस से राज़-ए-हक़ीक़त
ये आलम सरापा गुमाँ देखता हूँ
- पुस्तक : दीवान-ए-ख़्वाजा मीर दर्द (पृष्ठ 145)
- संस्करण : First
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