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जला बे-जुर्म हूँ आ कर बता दे माजरा यारा

आकिफ़ हुसैन शाहवली

जला बे-जुर्म हूँ आ कर बता दे माजरा यारा

आकिफ़ हुसैन शाहवली

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    जला बे-जुर्म हूँ कर बता दे माजरा यारा

    मिटा हूँ बे-गुनह ज़ालिम सज़ा भी तो बता यारा

    हूँ मैं ज़िंदा मगर मुझ में नहीं कोई बक़ा यारा

    अगर देखा नहीं ऐसा तो आ-कर देखना यारा

    ना देखा जिस ने यूसुफ़ को वो देखे अश्क-ए-या’क़ूबी

    मोहब्बत की हक़ीक़त का उसे दे अब पता यारा

    तुझे हैरत है क्यूँ मेरे बिगड़ते हाल पर हमदम

    ज़रा कुछ देर तो चेहरा दिखा फिर आज़मा यारा

    ज़माना मेरे मरक़द पर हँसे पर्वा नहीं मुझ को

    तिरी दहलीज़ पर होना है मदफ़न रहनुमा यारा

    जो मैं बेकस हुआ तन्हा हुआ सब छोड़कर गुज़रे

    तिरी चौखट के साए में मिले राहत ज़रा यारा

    रही दुनिया में रुस्वाई तो कोई ग़म नहीं लेकिन

    तिरी मस्ती में रुस्वा कर दिखा दे इंतिहा यारा

    मिरी आँखों में अश्कों का समुंदर मौजज़न क्यूँ है

    मिरी क़िस्मत में है क्या कुछ कभी तो पढ़ ज़रा यारा

    मैं जिस महफ़िल में पहुँचा हूँ वहाँ कुछ भी नहीं बाक़ी

    यहाँ सब कुछ तिरी मस्ती में खोया जा रहा यारा

    ये दुनिया है सराब-ए-दर्द इस में कुछ हक़ीक़त क्या

    मुझे तो एक पल दे दे मुझे भी आज़मा यारा

    बहक कर बे-ख़ुदी में बोल उठा दरबार में ‘नौशा’

    ये क्या 'आलम है कैसा रंग है क्या माजरा यारा

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