और मरने का हमें कुछ ग़म नहीं
और मरने का हमें कुछ ग़म नहीं
ज़ुल्म किस पर ढाएगा जब हम नहीं
वक़्त पर अपना असर दिखलाएगा
बे-असर ये नाला-ए-पैहम नहीं
सो रहे हैं चैन से अहल-ए-'अदम
फ़ित्ना-ए-’आलम का उन को ग़म नहीं
मर रहा हूँ अब मिरे घर आ चुके
किस को दम देते हो अब तो दम नहीं
ख़ंदा-ज़न हैं मिस्ल-ए-गुल तकलीफ़ में
ज़ख़्म-ए-दिल को हाजत-ए-मरहम नहीं
किस सहारे पर जिएँ बेदम तिरे
जब तिरी तेग़-ए-सितम में दम नहीं
बे-सबाती रो रही है देख कर
बर्ग-ए-गुल पर क़तरा-ए-शबनम नहीं
कम नहीं उलझन दिल-ए-ग़मनाक में
कब ख़याल का कल ब्रहम नहीं
कोसते हैं वो दु'आ की आड़ में
ये वो पहलू है कि जिस में ज़म नहीं
'अर्श' दिल्ली से जो है निस्बत तुझे
तू कभी अहल-ए-ज़बाँ से कम नहीं
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