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मा'दूम हुए जाते हैं अब ताब-ओ-तवाँ और

अमरनाथ असर

मा'दूम हुए जाते हैं अब ताब-ओ-तवाँ और

अमरनाथ असर

MORE BYअमरनाथ असर

    मा'दूम हुए जाते हैं अब ताब-ओ-तवाँ और

    कुछ गुल खिलाए कहीं ये दर्द-ए-निहाँ और

    घुल घुल के तिरे ग़म में हुआ जी का ज़ियाँ और

    जब तू ही पूछे तो भला जाऊँ कहाँ और

    है दिल की ज़बाँ और दहन की है ज़बाँ और

    फिर तू ही बता क्यूँ बढ़े मेरा गुमाँ और

    यूँ तो हैं ज़माने में बहुत मुझ से जवाँ और

    जो शान-ए-तजम्मुल है तिरी है वो कहाँ और

    सब्र तुझे सब्र पड़े मेरी फ़ुग़ाँ का

    कुछ रोज़ तो रहने दे मुझे महव-ए-फ़ुग़ाँ और

    दिल गर्दिश-ए-अय्याम से पिस-पिस के हुआ ख़ाक

    अब ख़ाक उड़ाते हो उड़ाओ मेरी जाँ और

    शाकिर है तिरा बज़्म में घर पर तिरा शाकी

    है फ़ितरत-ए-दिल ख़ूब वहाँ और यहाँ और

    हम जन्नत-ए-वाइ'ज़ की हक़ीक़त से हों मुंकिर

    मिल जाए अगर तेरे मोहल्ले में मकाँ और

    इस दौर-ए-ज़ई’फ़ी में 'असर' लाज बचाना

    ये और ज़माना है ये दिन और समाँ और

    स्रोत :
    • पुस्तक : तज़्किरा-ए-हिंदू शो’रा-ए-बिहार (पृष्ठ 145)
    • रचनाकार : मोहम्मद फ़सीहुद्दीन बल्ख़ी
    • प्रकाशन : नेशनल बुक सेंटर डालटेनगंज, पलामू (1961)

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