उस पे क्यूँ मरते हैं क्यूँ उस की तमन्ना दिल में है
उस पे क्यूँ मरते हैं क्यूँ उस की तमन्ना दिल में है
जगेशवर प्रसाद ख़लिश
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उस पे क्यूँ मरते हैं क्यूँ उस की तमन्ना दिल में है
बात कुछ खुलती नहीं जो ख़ंजर-ए-क़ातिल में है
दूर साग़र की तरह गर्दिश है अहल-ए-बज़्म को
आप से बाहर है वो जो आप की महफ़िल में है
देखिए आकर यहाँ रंगीन फूलों की बहार
इक शगुफ़्ता बाग़ है जो दाग़ मेरे दिल में है
नासेह-ए-मुश्फ़िक़ नसीहत अपनी रहने दीजिए
इ'श्क़ का जौहर अज़ल से मेरे आब-ओ-गिल में है
एक ही सूरत को दो कर के दिखा देता है ये
जौहर-ए-आईना-पिन्हाँ ख़ंजर-ए-क़ातिल में है
ग़ैर हँसता है उधर मुझ को लब-ए-जाँ देख कर
मैं इधर ख़ुश हूँ कि कश्ती दामन-ए-साहिल में है
होश किस को है जो ले उठ कर क़ियामत की ख़बर
दम ब-ख़ुद हर इक अ'दम की पहली ही मंज़िल में है
हश्र में हम दाद चाहें और उन के सामने
रो'ब इतना है कि मुँह की मुँह में दिल की दिल में है
क़ब्र में आते ही रौशन हो गया महशर का हाल
आख़िरी मंज़िल का मंज़र पहली ही मंज़िल में है
छुप नहीं सकता छुपाए से ग़ुबार-ए-आईना
साफ़ चेहरे से अ'याँ है जो तुम्हारे दिल में है
मिल के वो खिचता है और ये खिच के मिलता है 'ख़लिश'
बड़ के क़ातिल से ये ख़ूबी ख़ंजर-ए-क़ातिल में है
- पुस्तक : तज़्किरा-ए-हिंदू शो’रा-ए-बिहार (पृष्ठ 137)
- रचनाकार : मोहम्मद फ़सीहुद्दीन बल्ख़ी
- प्रकाशन : नेशनल बुक सेंटर डालटेनगंज, पलामू (1961)
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