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क़दमों से इतना दूर किनारा कभी न था

बद्र आलम ख़लिश

क़दमों से इतना दूर किनारा कभी न था

बद्र आलम ख़लिश

MORE BYबद्र आलम ख़लिश

    क़दमों से इतना दूर किनारा कभी था

    ना-क़ाबिल-ए-उ'बूर ये दरिया कभी था

    तुम-सा हसीं इन आँखों ने देखा कभी था

    लेकिन ये सच नहीं कोई तुम-सा कभी था

    है ज़िक्र-ए-यार क्यूँ शब-ए-ज़िंदाँ से दूर दूर

    हम-नशीं ये तर्ज़ ग़ज़ल का कभी था

    कमरे में दिल के उस के ’अलावा कोई नहीं

    हैरान हूँ कि ऐसा अँधेरा कभी था

    किस ने बिसात-ए-बहस के मोहरे बदल दिए

    तन्हा तो था वो पहले भी गूँगा कभी था

    इमरोज़-ए-इंतिज़ार का फ़र्दा तो कल भी है

    अंदोह-ए-इमशबी का सवेरा कभी था

    हर ज़ेहन में हमेशा सुलगता है ये सवाल

    आख़िर हुआ वो क्यूँ जिसे होना कभी था

    दीवाना था भटक गया गुम हो गया है क़ैस

    ख़ाली मगर कजावा-ए-लैला कभी था

    कल भी उसी दयार में था रौशनी का क़हत

    ऐसा मगर चराग़ का धंदा कभी था

    पिघली कुछ और बर्फ़ तो इक और शहर-ए-ख़्वाब

    यूँ बह गया नशेब में गोया कभी था

    बरसा है किस बबूल पे अब्र-ए-बहार-ख़ेज़

    इतना हरा तो ज़ख़्म-ए-तमन्ना कभी था

    उस ने भी इल्तिफ़ात से देखा था कब 'ख़लिश'

    मैं ने भी उस के बारे में सोचा कभी था

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