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ग़म को दुश्मन दर्द को ना-मेहरबाँ समझा था मैं

बह्ज़ाद लखनवी

ग़म को दुश्मन दर्द को ना-मेहरबाँ समझा था मैं

बह्ज़ाद लखनवी

MORE BYबह्ज़ाद लखनवी

    ग़म को दुश्मन दर्द को ना-मेहरबाँ समझा था मैं

    हाय कुन उठती बहारों को ख़िज़ाँ समझा था मैं

    एक ही साग़र ने मुझ पर ये हक़ीक़त खोल दी

    वो भी मय-कश था जिसे पीर-ए-मुग़ाँ समझा था मैं

    सुनने वालों की ख़ता क्या थी समझा गर कोई

    ख़ुद बड़ी मुश्किल से अपनी दास्ताँ समझा था मैं

    हाय वो निकला मेरी चश्म-ए-तमन्ना का सराब

    दूर से जिस को ग़ुबार-ए-कारवाँ समझा था मैं

    मुझ को मिलता भी तो किस 'उन्वाँ से लुत्फ़-ए-बंदगी

    सज्दे को पाबंद-ए-संग-ए-आस्ताँ समझा था मैं

    क्या ख़बर थी आशियाँ की ज़द में हैं ख़ुद बिजलियाँ

    बिजलियों की ज़द में अपना आशियाँ समझा था मैं

    हसरतों का था जनाज़ा आरज़ूओं का मज़ार

    हाय वो क़तरा जिसे अश्क-ए-रवाँ समझा था में

    एक ही मर्कज़ पे थे नाज़-ओ-नियाज़-ए-’आशिक़ी

    उन के क़िस्से को भी अपनी दास्तान समझा था मैं

    ख़त्म होती किस तरह 'बहज़ाद' मेरी रह-रवी

    रह-गुज़र थी जिस को मंज़िल का निशाँ समझा था मैं

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