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चुभे जब दिल में ख़ार-ए-इ'श्क़ फिर कमतर निकलते हैं

आफ़ाक़ बनारसी

चुभे जब दिल में ख़ार-ए-इ'श्क़ फिर कमतर निकलते हैं

आफ़ाक़ बनारसी

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    चुभे जब दिल में ख़ार-ए-इ'श्क़ फिर कमतर निकलते हैं

    निकलते हैं अगर तो जान ही ले कर निकलते हैं

    तर्क-ए-नावक जो सीने में कभी चुभ कर निकलते हैं

    तो बन कर ख़ून अरमान-ए-दिल-ए-मुज़्तर निकलते हैं

    किधर का क़स्द है किस का मुक़द्दर आज जागा है

    तलब होता है शाना आईना-ए-ज़ेवर निकलते हैं

    तुम्हारा तीर रस्ता रोक कर सीने में बैठा है

    जो नाले भी निकलते हैं तो रुक-रुक कर निकलते हैं

    वो कहते हैं अजल होती है जिस की हम पे मरता है

    क़ज़ा आती है जब च्यूँटी की उस के पर निकलते हैं

    हसीनों को जो देखो शक्ल कैसी भोली होती है

    टटोलो दिल अगर उन के तो वो पत्थर निकलते हैं

    लगा दी गर्मी-ए-उल्फ़त ने कैसी आग सीने में

    कि आँखों से जो आँसू की जगह अख़गर निकलते हैं

    कोई देखे ज़रा 'आफ़ाक़' की उस वक़्त कैफ़ीयत

    कभी हज़रत जो सहबा-ए-सुख़न पी कर निकलते हैं

    स्रोत :
    • पुस्तक : तज़्किरा-ए-शो’रा-ए-उत्तर प्रदेश हिस्सा सोउम (पृष्ठ 59)
    • रचनाकार : इरफ़ान अ’ब्बासी

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