गाहे इधर की फ़िक्र है गाहे उधर की है
गाहे इधर की फ़िक्र है गाहे उधर की है
मिट्टी ग़रज़ ख़राब जहाँ में बशर की है
मा'सूम को भी नज़्अ' है हरगिज़ नहीं मफ़र
मज़लूम की दुआ को भी हाजत असर की है
चोटी में और जूड़े में ज़ालिम के फ़र्क़ है
ये राह उम्र-भर की है वो साल-भर की है
गुल-गीर का ख़तर तो पतंगों की है ख़लिश
आफ़त में जान शाम से शम-ए-सहर की है
उजड़ी पड़ी हैं तुर्बतें शाहान-ए-दहर की
फूलों की चादरें हैं न बत्ती अगर की है
होता है ज़िंदगी का कोई दम में फ़ैसलः
दिन-भर की बात है न पहर-दो-पहर की है
क़ुदरत तो चार-सू तिरी रौशन है दहर में
हाजत न शम्स की न ज़रूरत क़मर की है
क़ातिल वो शाख़ है तिरी ये तेग़-ए-आबदार
जिस को न गुल का ग़म है न हाजत समर की है
सब कुछ ख़ुदा ने मुझ को दिया 'अर्श' बे-तलब
दुख़्तर की आरज़ू न तमन्ना पिसर की है
ऐ 'अर्श' आओ ख़ाक में दिल्ली के सो रहें
मिट कर भी ख़्वाब-गाह ये अहल-ए-हुनर की है
- पुस्तक : कुल्लियात-ए-अर्श मौसूम बा नज़्म-ए-नौ-निगार व केसः-ए-जवाहर (पृष्ठ 112)
- रचनाकार : ज़मीरुद्दीन अरश गयावी
- प्रकाशन : पंजाब फ़ाइन आर्ट्स प्रेस, कलकत्ता (1932)
- संस्करण : 2nd Edition
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