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ग़म-ए-इश्क़ से सरगिराँ और भी हैं

सीमाब अकबराबादी

ग़म-ए-इश्क़ से सरगिराँ और भी हैं

सीमाब अकबराबादी

MORE BYसीमाब अकबराबादी

    ग़म-ए-इश्क़ से सरगिराँ और भी हैं

    जहाँ हम हैं शायद वहाँ और भी हैं

    ये दुनिया अगर मेरे क़ाबिल नहीं है

    तिरे पास यारब जहाँ और भी हैं

    बहुत राज़ दुनिया से मैं कह चुका हूँ

    कुछ असरार दिल में निहाँ और भी हैं

    ये नाज़िश ये ख़ुद-फ़हमियाँ ये तफ़ाख़ुर

    तुम्हीं तो नहीं नौजवाँ और भी हैं

    बढ़ाओ मंज़िल की शमएँ अभी से

    अभी राह में कारवाँ और भी हैं

    मैं अपने नशेमन की क्या ख़ैर माँगूँ

    मेरे सामने आशियाँ और भी हैं

    असर सोज़-ए-परवानः से लेने वाले

    यहाँ चंद आतिश-बजाँ और भी हैं

    अगर मेरे सज्दों से ऐसी ही ज़िद है

    तो बंदा-नवाज़ आस्ताँ और भी हैं

    नहीं मैं नवासंज 'सीमाब' तन्हा

    भरा बाग़ है नग़्मः-ख़्वाँ और भी हैं

    स्रोत :
    • पुस्तक : कलीम-ए-अजम (पृष्ठ 247)
    • रचनाकार : सीमाब अकबराबादी
    • प्रकाशन : रिफ़ाह-ए-आम प्रेस, अगरा (यू.पी) (1935)

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