मोअ'त्तर पा के बू-ए-हुस्न से सारा बदन अपना
मोअ'त्तर पा के बू-ए-हुस्न से सारा बदन अपना
वो सूँघा करते हैं ख़ुद भी अक्सर पैरहन अपना
रक़ीबों की हमारे बाद अब इतनी भी क्या कसरत
कभी तुम ग़ौर से देखो तो रंग-ए-अंजुमन अपना
इरादः आज बे-ख़ौफ़-ओ-ख़तर है उन की महफ़िल का
मोहब्बत में कोई देखे तो ये दीवानः-पन अपना
कुछ इस आलम में वो बे-पर्दः निकले सैर-ए-गुलशन को
कि नसरीं अपनी ख़ुश्बू रंग भोली नस्तरन अपना
वो रहम आया तुझे मजबूरी-ए-शौक़-ए-शहादत पर
ख़बर ले हाथ की ख़ंजर सँभाल ऐ तेग़-ज़न अपना
हमें मालूम है सब हाल उस के हुस्न-ए-अबतर का
बनाओ इतना न दिखलाए वो ज़ुल्फ़-ए-पुर-शिकन अपना
सभी कुछ हो गया उन का हमारा क्या रहा 'हसरत'
न दीं अपना न दिल अपना न जाँ अपनी न तन अपना
- पुस्तक : कुल्लियात-ए-हसरत मोहानी (पृष्ठ 326)
- रचनाकार : हसरत मोहानी
- प्रकाशन : मक्तबा इशाअत उर्दू, दिल्ली (1959)
- संस्करण : First
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