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न जाने कब छलक जाए तिरी आँखों का पैमाना

इबरत बहराइची

न जाने कब छलक जाए तिरी आँखों का पैमाना

इबरत बहराइची

MORE BYइबरत बहराइची

    जाने कब छलक जाए तिरी आँखों का पैमाना

    हक़ीक़त को बना दे मेरी इक पुर-दर्द अफ़्साना

    बहुत मज्बूर-ओ-’आजिज़ हूँ करम बस इतना फ़रमाना

    मिरा दिल साथ ले आना मिरे कूचे में जब आना

    वहाँ नफ़रत पनपती है यहाँ उल्फ़त की बस्ती है

    तुम्हारा दिल है वीराना मिरा दिल है ख़ुदा-ख़ाना

    मिरी मजबूरियाँ रोके हुए हैं रास्ता मेरा

    है जू-ए-शीर का लाना मिरा तुम तक पहुँच जाना

    ख़रीदार-ए-मोहब्बत बन के आया हूँ मैं दुनिया में

    तअ'ज्जुब है मुझे अब तक कि तुम ने क्यूँ पहचाना

    मैं दो दिन के लिए आया हूँ इस दुनिया में रहने को

    वो दो दिन भी गुज़ारूँगा मैं दुनिया में फ़क़ीराना

    मिरी बे-माएगी मुझ को तम' का दर्स देती है

    कहीं ऐसा हो क़ुदरत लगा दे मुझ पे जुर्माना

    दिखा दे तज्ज़िया कर के जो मेरी चश्म-ए-पुर-नम का

    तुम्हारे पास क्या ऐसा नहीं है कोई पैमाना

    उस को दिन खटकता है उस को रात डसती है

    बसर करता है जो भी ज़िंदगी अपनी ग़रीबाना

    सफ़र की कर के नीयत घर से निकले हो तो बेहतर है

    मगर मौजूदगी में शम्स की घर अपने लौट आना

    ये सुन्नत है आक़ा की ये वाजिब-ओ-लाज़िम है

    बना रक्खा है तुम ने अपने दिल को क्यूँ ’अज़ा-ख़ाना

    ज़बाँ का पास भी रखते नहीं हो अपनी 'इबरत'

    मुझे नाहक़ बना रखा है तुम ने अपना दीवाना

    स्रोत :
    • पुस्तक : Maghz-e-Sukhan (पृष्ठ 117)

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