न खो देते तिरे जल्वे तो ये किस को यक़ीं होता
न खो देते तिरे जल्वे तो ये किस को यक़ीं होता
दम-ए-नज़्ज़ारः जल्वों के सिवा कुछ भी नहीं होता
ख़ुदा जाने कि इस हसरत में कितने जान खो बैठे
तिरा जल्वः किसी दिन ख़ातम-ए-दिल का नगीं होता
तलब और जुस्तुजू शर्त-ए-मुक़द्दम है मगर फिर भी
न चाहें ख़ुद ही वो जब तक किसी से कुछ नहीं होता
तिरी यकताई की ख़ातिर ख़याल अपना बटाया है
तसव्वुर हद से बढ़ जाता तो सूरत आफ़रीं होता
हज़ारों ग़फ़लतों से साबिक़ा दिन-रात पड़ता है
मगर दिल है कि उस की याद से ग़ाफ़िल नहीं होता
कभी उफ़्तादगी की क़ुव्वतें भी देखिए 'कामिल'
वहीं से काम बनता है जहाँ कुछ भी नहीं होता
- पुस्तक : वारदात-ए-कामिल दीवान-ए-कामिल (पृष्ठ 23)
- रचनाकार : कामिल शत्तारी
- प्रकाशन : कामिल अकादमी (1962)
- संस्करण : 4th
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