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बीमार-ए-मोहब्बत हूँ तरसाओ न सूरत को

कामिल शत्तारी

बीमार-ए-मोहब्बत हूँ तरसाओ न सूरत को

कामिल शत्तारी

MORE BYकामिल शत्तारी

    बीमार-ए-मोहब्बत हूँ तरसाओ सूरत को

    भूले से कभी आओ तुम भी तो अयादत को

    मुख़्तार हो तुम साहेब जो चाहो करो लेकिन

    इतना भी सताना क्या मजबूर-ए-मोहब्बत को

    उस क़ादिर-ए-मुतलक़ के बंदे ही जो हम ठहरे

    हँसते हुए सहना है हर जब्र-ए-मशीयत को

    जिस हाल में वो रखें उस हाल में हम ख़ुश हैं

    मुद्दत हुई दफ़नाए एहसास-ए-मुसीबत को

    जो ग़म में मसर्रत की घुलने को हुए पैदा

    बद-बख़्त वो क्या जानें ख़ुद ग़म की मसर्रत को

    इक बोद-ए-ख़याली से हट कर ग़म-ए-फ़ुर्क़त क्या

    मफ़्लूज होने दो एहसास-मईय्यत को

    वो पुश्त-पनाही पर जाते हैं क़ुव्वत से

    छेड़े कोई उन के परवर्दा-ए-निसबत को

    सरकार के बंदे का बस दिल ही भर आना है

    आँखों की नमी बस है तहरीक-ए-इनायत को

    अफ़्सानः-ए-हस्ती में मुज़्मर है हक़ीक़त भी

    भूलो कहीं 'कामिल' तुम अपनी हक़ीक़त को

    स्रोत :
    • पुस्तक : वारदात-ए-कामिल दीवान-ए-कामिल (पृष्ठ 152)
    • रचनाकार : कामिल शत्तारी
    • प्रकाशन : कामिल अकादमी (1962)
    • संस्करण : 4th

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