है किधर क़िबला बताओ किस तरफ़ सर ख़म रहे
है किधर क़िबला बताओ किस तरफ़ सर ख़म रहे
मेरी नज़रों में तो हर सू क़िब्लः-ए-आलम रहे
ज़िंदगी जैसी भी कुछ हो जो भी कुछ आलम रहे
दम भरे जाएँगे तेरा दम में जब तक दम रहे
दाग़-ए-दिल ज़ख़्म-ए-जिगर से और कुछ मतलब नहीं
बात सिर्फ़ इतनी है कोई यादगार-ए-ग़म रहे
किस ने महसूसात की दुनिया को बख़्शी आगही
चाहने वालों में पहले तुम रहे या हम रहे
दीदः-ए-तर इक अलामत है हयात-ए-इश्क़ की
दिल में ख़ुद धड़कन रहेगी चश्म जब तक नम रहे
इस हसीं उलझन से सौ सौ हुस्न पैदा क्यूँ न हों
ज़ुल्फ़ की हर बरहमी पर जब कोई बरहम रहे
अज़्म-ओ--इस्तिक़लाल है शर्त-ए-मुक़द्दम इशक में
कोई जादः क्यूँ न हो इंसान उस पर जम रहे
दूर जाना है तुझे इक बात सुन ले दूर की
ख़ुश मुसाफ़िर आँ कि मी-दारद ब-ग़ुर्बत हम-रहे
बन गईं ख़ुद आफ़त-ए-जाँ अपनी गूनागूनियाँ
इशक हो या हुस्न हर पर्दे के पीछे हम रहे
मेरी पहली परवरिश तक़्दीस की आग़ोश में
क़ुदसियों के सर भी 'कामिल' मेरे आगे ख़म रहे
- पुस्तक : वारदात-ए-कामिल दीवान-ए-कामिल (पृष्ठ 223)
- रचनाकार : कामिल शत्तारी
- प्रकाशन : कामिल अकादमी (1962)
- संस्करण : 4th
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