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जिस के तुम दिलबर हो जिस दिल में तुम्हारी याद हो

अकबर वारसी मेरठी

जिस के तुम दिलबर हो जिस दिल में तुम्हारी याद हो

अकबर वारसी मेरठी

जिस के तुम दिलबर हो जिस दिल में तुम्हारी याद हो

वो हमेशा ख़ाक छाने वो सदा बर्बाद हो

करके ज़ख़्मी चल दिया वो मैं ये कहता रह गया

और भी इक वार मुझ पर सितम-ईजाद हो

मुसहफ़-ए-रुख़्सार-ए-जानाँ हिफ़्ज़ करना चाहिए

हाफ़िज़-ए-क़ुरआँ वही है जिस को क़ुरआँ याद हो

सैर कर दे अब कि गुलशन-बीं है हंगाम-ए-बहार

हम असीरों की रिहाई अब तो सय्याद हो

रहज़न-ए-ईमान तू जल्व: दिखा जाये अगर

बुत पुजें मंदिर में मस्जिद में ख़ुदा की याद हो

हूर का दिल छीनते हो जिन की तुम लेते हो जाँ

पर कतरते हो परी के और आदम-ज़ाद हो

पढ़ते रहते हैं तुम्हारा ही सबक़ ये और तुम

आशिक़ों को भूल जाते हो बड़े उस्ताद हो

हम करें मश्क़-ए-मोहब्बत तुम करो मश्क़-ए-सितम

हर्फ़ जिस के ख़ूबसूरत हों उसी पर साद हो

क़त्ल होने पर मैं राज़ी हूँ मगर ये शर्त है

तेरे हाथों से गले पर ख़ंजर-ए-फ़ौलाद हो

जो तुम्हारी बात है है वो ज़मान: से जुदा

शोख़ियाँ ईजाद करते हो बड़े उस्ताद हो

खींच कर तलवार 'अकबर' पर चले हो बे-दरेग़

बे-गुनह को क़त्ल करते हो बड़े जल्लाद हो

स्रोत :
  • पुस्तक : रियाज़-ए-अकबर: असली दीवान-ए-अकबर (पृष्ठ 60)
  • रचनाकार : मोहम्मद अकबर ख़ाँ वारसी
  • प्रकाशन : मतबा मजीदी, मेरठ

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