मज़्दा-ए-वस्ल बहुत दिन से रोज़ सुना करते हैं
मज़्दा-ए-वस्ल बहुत दिन से रोज़ सुना करते हैं
याहया क़ादरी फुल्वारवी
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मज़्दा-ए-वस्ल बहुत दिन से रोज़ सुना करते हैं
सालहा गुज़रे कि हम रोज़ गिना करते हैं
आमद आमद की ख़बर जब से सुना करते हैं
कौन दिन है कि नहीं राह तका करते हैं
नामा-बर सच कहो वे नामा को क्या करते हैं
खोल कर पढ़ते हैं या फेंक दिया करते हैं
एक इस बज़्म में हम मिस्ल-ए-चराग़-ए-सहरी
आतिश-ए-हिज्र से हर रात जला करते हैं
या-रब इस 'इश्क़ में बदनाम कहाँ तक होंगे
एक 'आलम हैं कि अंगुश्त-नुमा करते हैं
दाम में ज़ुल्फ़ के 'यहया' को फँसाया जब से
सौ पचास आते हैं हर रोज़ बुझा करते हैं
- पुस्तक : Al-Mujeeb, Phulwari Sharif (पृष्ठ 53)
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