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साँसें उखड़ रही हैं मिरे ए'तिबार की

नूरुल हसन नूर

साँसें उखड़ रही हैं मिरे ए'तिबार की

नूरुल हसन नूर

MORE BYनूरुल हसन नूर

    साँसें उखड़ रही हैं मिरे ए'तिबार की

    अब ख़त्म दास्ताँ हो शब-ए-इंतिज़ार की

    छेड़ा जहाँ पे ज़िक्र क़ियामत ने यार का

    गर्दिश ठहर गई वहीं लैल-ओ-नहार की

    इक आईना बदन के क़दम चूमने लगा

    आँखों को भा गई ये अदा आबशार की

    क्यूँ ख़ार-ओ-ख़स को मस्नद-ए-तौक़ीर की अ'ता

    वक़्त तूने कैसी रविश इख़्तियार की

    दस्त-ए-दुआ' बुलंद किए है हवा-ए-शब

    लौ थरथरा रही है चराग़-ए-मज़ार की

    परचम मिरे चराग़ की लो कर ले तो बुलंद

    तारीकियों से करनी है जंग आर-पार की

    बाम-ए-उफ़ुक़ पे रौशनियों ने किया तुलूअ'

    ये आख़िरी घड़ी है शब-ए-इंतिशार की

    तीर-ओ-तबर से काम जो मुमकिन हो सका

    वो काम कर गई तिरी चुटकी ग़ुबार की

    साँसें सुलगते जलते हुए दश्त की थमीं

    रफ़्तार देख कर मिरे नाक़ा सवार की

    काग़ज़ ने मेरे सामने आकर किया क़ियाम

    छेड़ी जो बात ख़ामा-ए-मंज़र-निगार की

    'नूर' उस को देख के महसूस ये हुआ

    तस्वीर मैं ने देखी है मौज-ए-बहार की

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