मय न हो शीशा न हो मुतरिब न हो साग़र न हो
मय न हो शीशा न हो मुतरिब न हो साग़र न हो
कुछ न हो साक़ी अगर पहलू में वो दिल-बर न हो
क्या बहार-ए-ज़िंदगी पहलू में जब दिल-बर न हो
क्यूँ गुल-ए-क़ालीं शब-ए-ग़म ख़ार से बद-तर न हो
किस तरह फ़ित्राक में बाँधे वो क़ातिल बा'द-ए-क़त्ल
पाँव पड़ने के भी क़ाबिल जब हमारा सर न हो
जिस तरह जौहर अलग होता नहीं तलवार से
यूँ जुदा दिल से ख़याल-ए-आबरू दिलबर न हो
हों वो सौदाई नहीं चाक-ए-गरेबाँ की ख़बर
आदमी इतना भी अपने जामा से बाहर न हो
’उम्र भर याद-ए-रिंदाँ में गिर्यां रहा
क़ब्र पर जुज़ दामन-ए-शबनम कोई चादर न हो
ये भी इक अदना असर है झूटे वा'दों का हुज़ूर
आप का इक़रार-ए-वस्ल और मुझ को वो बावर न हो
’उज़्र कुछ मुझ को नहीं क़ातिल तू बिस्मिल्लाह कर
सर ये हाज़िर है मगर एहसान मेरे सर न हो
रिंद भी हाज़िर हैं महफ़िल में मरम्मत के लिए
यूँ मज़म्मत मय की ऐ वाइ'ज़ सर-ए-मिंबर न हो
ख़ार चुभते हैं जो तलवों में अल्लाह रे जुनूँ
मैं समझता हूँ कि ये फ़स्साद का नश्तर न हो
तज़्किरे पर हश्र के कहता है वो कम-सिन मिरा
लुत्फ़ जब है हम हों तुम हो दावर-ए-महशर न हो
कसते हैं आवाज़ अक्सर शम्-ए’-रूयान-ए-जहाँ
शम्-ए’-महफ़िल में कहीं गोया 'रज़ा' जल कर न हो
- पुस्तक : Asli Guldasta-e-Qawwali (पृष्ठ 16)
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