कम से कम इतना बुज़ुर्गों का असर रखते हैं
कम से कम इतना बुज़ुर्गों का असर रखते हैं
यार को अपने मनाने का हुनर रखते हैं
अपनी उल्फ़त का 'अजब हम भी असर रखते हैं
हुस्न तुम रखते हो हम हुस्न-ए-नज़र रखते हैं
मैं भटक जाऊँ कभी हो नहीं सकता हरगिज़
तुम ने जब कह दिया हम तुम पे नज़र रखते हैं
क्यूँ सुनाता फिरूँ रूदाद ज़माने भर को
मेरे हर हाल की जब आप ख़बर रखते हैं
चंद किरनें लिए बे-कार है रौशन दुनिया
वो तो ठोकर पे सुनो शम्स-ओ-क़मर रखते हैं
आप आ जाएँ तो दीदार-ए-'अक़ीदत कर लें
अपने होंटों पे यही शाम-ओ-सहर रखते हैं
आप का हाथ है सर पर तो बहुत है 'आलम'
हम कहाँ अपने लिए ला’ल-ओ-गौहर रखते हैं
- पुस्तक : Sukhan Waraan-e-Izzat (पृष्ठ 198)
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