तुम हमेशा मोहतरम हो सब चमक-दारों के बीच
तुम हमेशा मोहतरम हो सब चमक-दारों के बीच
और रहो ख़ुर्शेद की मानिंद मह-पारों के बीच
'इश्क़ हो सच्चा अगर तो ये भी होता है करम
बाग़ देता है बना कर हम को अँगारों के बीच
मैं तो बिकने के लिए तय्यार हूँ हर गाम पर
कौन लाएगा बुला कर उन को बाज़ारों के बीच
यूँ तो जल्वा-गर थे लाखों मह-जबीन-ओ-दिल-नशीं
चुन लिया तुम को नज़र ने आईना-दारों के बीच
सारी तारीख़ें पलट लो ये सनद न पाओगे
इक अना का बाँकपन है कितनी तलवारों के बीच
मर्हबा सद मर्हबा जिस ने सुना कहने लगा
तुम ही तुम आए नज़र 'आलम के नज़ारों के बीच
- पुस्तक : Sukhan Waraan-e-Izzat (पृष्ठ 219)
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