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अपने तरकश में जो वो तीर-ए-नज़र रखते हैं

अस'अद रब्बानी

अपने तरकश में जो वो तीर-ए-नज़र रखते हैं

अस'अद रब्बानी

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    अपने तरकश में जो वो तीर-ए-नज़र रखते हैं

    हम भी हैं सीना-सिपर हम भी जिगर रखते हैं

    हुस्न की भीड़ में इक तुम को हमीं ने ढूँडा

    हुस्न तुम रखते हो हम हुस्न-ए-नज़र रखते हैं

    आप से बातें हमारी हैं कहाँ पोशीदा

    आप के कान तो दीवार में दर रखते हैं

    ख़ाक-ए-दहलीज़ दर-ए-यार में है अपना नसीब

    हम कहाँ चाँद सितारों पे नज़र रखते हैं

    देखना भी जो गवारा नहीं करते हैं हमें

    सुनते हैं हम पे वही पूरी नज़र रखते हैं

    बज़्म में हम को कई ऐसे भी मिल जाते हैं लोग

    नज़रें होती हैं उधर कान इधर रखते हैं

    बात सुनते हैं कहाँ वो तो ज़बाँ पर 'असअद'

    क्यूँ कहाँ कैसे अगर और मगर रखते हैं

    स्रोत :
    • पुस्तक : Sukhan Waraan-e-Izzat (पृष्ठ 62)

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